संस्कृतकलशा सहित नाटक समयसार | Sanskritakalasha Sahit Natak Samayasar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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] | ॥ ४ रे ८ / हि कविवर बनारसीदासजी | भर न बन छोड़े दिया और वे विपुल सम्पत्तिके अधिकारी होकर फिर जोौनपुरमें वहँकि प्रसिद्ध धनिक छाछा रामदासजी अंग्रवार्ल के साथ सझेमें जवाहिरातकां धंधा करने लगे। ः ' संबरत्‌ १६३५७ में उनके एक पुत्र उत्पन्न हुआ पेर्तु वह आठ दस दिल ही जीवित रह सका। थोड़े दिन पीछे ख़रगसेनजी पुत्र-छाभकी इच्छासे रोहतकपुरकी सतीकी यात्रा करनेको सकुटुम्ब गये । परन्तु मार्गमे चोरोंने सर्वस्॒ छूट लिया, एक कोड़ी भी पासमें न रही, बडी कठिनतासे घर जछोटकर आये | कविवर कहते हैं-.- गये हुते मांगनकी पूत | यह फल दीनों सती अझ्त | प्रगट रूप देखें सब सोग | तऊ न समुझें मूरख छोग ॥ ., संवत्‌ १६४३ में खरगसेनजी पुत्रछाभकी इच्छासे फिर सतीकी यात्राको सकुटुम्ब गये और सकुशरू लौट आये, तथा थोड़े दिनके पश्चात्‌ इनकी मनोकामना भी पूर्ण हो गई । आठ वर्षके पश्चात्‌ पुत्रका मुख देखा, इसलिये विशेष आनंद मनाया गया। पुत्र॒का जन्मकार और नाम नीचेके पद्मसे प्रगठ हीगा। ; सैंबेंत सोलह सो तेताल । माघ मास सितपक्ष रसाल। शकादशी वार रविनन्द । नखत रोहिणी चषको चन्द ॥ रोहिनि त्रितिय चरंन अनुसार। खरगसेन घर सुत अवतार । दीनों नाम विक्रमाजीत । गावहिं कामिनि मंगलगीत ॥ जब बालक छह सात महीनेका हुआ, तब खरगसेनजी सकुटुम्ब श्रीपाश्वनाथकी यात्राको काशी गये। भगवत्‌की भावपूर्वक पूंजन करके उनके चरणोंके समीप पुत्रको डाल दिया और प्रार्थनाकी,--- . चिरंजीवि कीजे-यह बॉल । तुम शरंणागतके रंखपांल । इस बालकपर कीजे दया | अब यह दास तुम्हारा भया-।॥




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