राजस्थानी कहावतें | Rajasthani Kahawaten

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(रह ) श ऋणजु छर्र चर सबते व इकोष परासर घना अर सरदो बला सुर हिंयते फर्श ॥ बृहस्पति 1९५ ३ हात्यवर्तेयमेबेशत काक्तालौपसेव अ। प्रभ्मूद्चमंद्तः सिद्धि! कर्मंचिशषि रापते ॥ बृहस्वति । ४ स्वासिताबिप्टितों सृत्प' परस्ताशतरि कातरः 1 इदापि दिद्वामते एर््‌दिशं स्वामिदमालितः ॥ रंस्य 1९६ भारत कौ प्रादेशिक मापाओं में अचलित मतेक छोशोत्तियो के मूस रूप का चह्ाा रूमाने दपा यह बातते के किए कि हयारे देश का खोकोक्तिसाहित्य कितना अंपन्न एवं समृद्ध है स्वृतिप्रंपों का अम्पयत सिठांठ आगशपक है । मीति बासुमय और क्ोकोपिदर्यों मदुप्पों का मैहिक आचरथ किस प्रकार शुद़ है! छोर मे अपने बैयग्तिक आनिक सामाजिक ओर राजजैतिक उत्दर्प के छिए किम प्रकार ध्यषह्टार कर, जम शबका निर्ेंस करने बाश्ा साहिटय सौति बाइ मय के गास से प्रशिद् है । जारत का सीतियाश सश बस्य दैधों की तुलना में रत्पत्त समृद्ध ई. यहि ऐसा कहा जाज तौ इसमें कोई लत्मुतित न होगी | पह वाह मय यहाँ एक ओर स्वत कप से ठिश्ले हुए तौतिधंशों के रूप में उपलष्य ई बहा पूसती मोर रामायण महाभारत तथा पुराणादि पदों में स्‍्वात-स्पाद पर प्रमृक्त सीतिदब्ों और सखूत्तियों के रुप में प्राप्ण हैं । पाप तथा महाभारत में विप्रेषत' महाभारत ) औं शजबम यृहस्वअर्म स््रीबर्न शाजनौि स्याषहारिव' कोप्तत ठजा पारिया- एक घर्म भादि का सुम्दर विशेषेन आदर्श स्शस्तर्यों को शामने रशकर किया अया है| महामारह के प्ांठिपन, उधोपपर्र और बसपथ्र इस दृष्टि से विप्लेप बत्मौम है। स्वतंत्र कप पे छिश्ये हुए सीठिरंब पौ दो प्रकार के ६--एक तो दे जो शृषरक्प में भ्रभवा फूटकर पूर्घों के रूप में हिलले गये ६ और दूपरे थे शिसमें पशु पत्तियों को हैरर कषाएँ रहो यह ६ भर रची के माप्यम से तौति को छिपा भी दौ पईं ई। दूसरे प्रकार के प्रंथ पधरचताएं हैं जिनपे औच-बौच में मै तिक आूक्तियाँ और कहादतें पनिराजियों कौ माँति बिखरी बडी है । २५ विलाइमे--बोका रहरपौ बातमा, बॉका आाइर होगे | शोडी शब में शाकड़ो काट न सक्के कोप २६ विक्ताइपे---/ लपनी कटी में रूता ऐर ४




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