जैनतत्व कालिका विकास | Jaintatv Kalika Vikas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( )१ ) फाम लेते ही नहीं। इस के समाधान में कहा जाता है कि-कया उक्कचेशश्ों के करने से ही लाभ लिया जा सकता है ? जैसे-किसी व्यक्ति को अत्यन्त लद््मी की आपधि हो गई तो फिर फ्या मदिरिा-पान, मांस-भक्षण, वेश्या संग, द्यृत कर्म इत्यादि रृत्यों के करने से ही उस मिली हुई लद्मी का लाभ लिया जा सकता है। नहीं । इसी प्रकार श्रीभगवान के जब शओतराय कर्म का ज्ञवय होता है तब उक्त पांचों प्रकृतियों के क्षय होने से आत्मिक पांचों शक्तियां उत्पन्न हो जाती है; परन्तु वे शक्तियां मोहनीय कमे के क्षय हो जाने से किसी प्रकार से भी विकार को पभाप्त नहीं हो सकतीं। जैसे-लोगों का माना हुआ ईश्वर सर्व-व्यापक चेश्यादि के अगोपांगों में रहने पर भी विकार को प्राप्त नहीं होता तथा अनत शक्ति दोने पर भी विपय में शनत शक्ति का उपयोग नहीं करता। यदि इस में ऐसे कहा जाय कि-जवब चह अनन्त शक्ति युक्त तथा सर्वव्यापक है तो फिर विपय क्यो नहीं कए्ता तथा जब लोग विपयादिक छत्यों में प्रवृत्त होते हैं, तव वह उसी स्थान में व्यापक होता है, ओर इस कृत्य को भली प्रकार से देखता भी है तो फिर उसे देखने से ओर उस में व्यापक होने से क्या लाभ हुआ? इन सब पश्नों का यही उत्तर वन पड़ेगा कि-ईश्वर सर्वे शक्तिमान्‌ होने पर भी विकारी नहीं है ठीक उसी प्रकार अन्तराय कम के स्वेथा क्षय हो जाने पर भी श्रीभगवान्‌ मोहनीय कम के क्षय होजाने से सदेव काल अविकारी भाव में रहते है, परन्तु अन्तराय कमे के क्षय दोजाने के कारण से उनमें अनन्त शक्ति का प्रगट होजाना स्वाभाविकता से माना जा सकता है तथा यदि उन शक्षियों का व्यवहत द्ोना स्थीकार किया जायगा तो उनमें अनेक प्रकार के अन्य दोपों का भी सद्भाव मानना पड़ेगा | जिससे उन पर अनेक दोएों का समूह एकच हो जाने से उनको निर्विकार स्वीकार करने मे संकुचित भाव रखना पड़ेगा । श्तएव ओरीभगवान, अनन्त शक्तियों के भ्कट होजाने पर भी निर्विकार अवस्था में सदैव काल रहते हैं । ६ श्रीमगवान्‌ हास्य रूप दोप से भी रहित होते हैं फ्योंकि-चार कारणों से हास्य उत्पन्न होता है। जैसे कि-हास्य पूवेक वात करने से १ हंसते को देखने से २ हास्य-कारी वात के खुनने से ३ और द्वास्य उत्पन्न करने वाली वात की स्घृति करने से ४ सो हास्य के उत्पन्न होजाने से सर्वक्षता का अभाव अवश्य मानना पड़ेगा । फ्योंकि-हास्य अपूर्व वात के कारण से उत्पन्न होता है, जब वे सर्वक्ष ओर सर्वदर्शी है तब उनके ज्ञाव में अर्पूध कौनसी बात हो सकती है। अतः चीतराग प्रभु हास्य रूप दोष से भी रहित होते हैँ । ७ रति--पदार्थों पर रतिभाव उत्पन्न करना। यह भी एक मोहनीय कर्म का मुख्य कारण है। सो श्रीभयवान्‌ पदार्थों पर भीतिभाव रुखना इस दोष रभे




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