हमारे पर्व | Humare Parwa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रूप नहीं है। हम हजारो वर्षो मे इस पर्व को मनाते आ रहे है। फिर भी समाज, देश व राष्ट्र में अनेको भाई-बहिन दीन, दु खी और अरक्षित क्यो है ? कारण स्पष्ट है, हमने पर्व के बाह्य रूप को पकडा है, किन्तु इसकी मूलभूत भावना को, गरिमा को सर्वथा भूल गये है। आज केवल परम्पराओ की लकीर पीटी जा रही है किन्तु वास्तविकता को समझने का प्रयास नहीं किया जा रहा है। रक्षाबधन कोई सगे भाई-बहिन के मनाने का पर्व नहीं था, किन्तु कोई भी नारी जब अपने आपको अरक्षित समझती, वह रक्षा करने योग्य पुरुष के पास राखी भेजकर अपनी रक्षा का भार उसके कधो पर डाल देती और वह भी अपना कर्तव्य समझकर उस दायित्व को प्राणप्रण से निभाता था। मध्यकालीन इतिहास मे अनेक उदाहरण पाए जाते है जिससे विदित होता है कि सिर्फ हिन्दुओ में ही नहीं, वरन्‌ अन्य जाति के शासकों ने भी रक्षाबधन का सम्मान किया। मेवाड के महाराणा संग्रामसिंह बाबर के विरूद्ध युद्ध मे वीरगति की प्राप्त हो गए थे। उनका पुत्र उदयसिह उस समय दूधमुंहा शिशु था, चित्तौड का शासन विधवा महारानी कर्णवती सामतो की सहायता से चला रही थी। इस अवसर का लाभ उठाकर गुजरात के मुसलमान शासक बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। इस विपत्ति में रक्षा का कोई उपाय न देखकर महारानी कर्णवती ने मुगल सम्राट हुमायू के पास राखी भेजी, साथ मे सदेश भिजवाया-““भाई ! मै राखी के इन धागो में अपना स्नेह दे रही हू, तुम मेरे भाई हो, मै तुम्हारी बहिन हूं। मेरी रक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य है।।” जिस समय राखी हुमायूं को मिली, उस समय वह बंगाल मे युद्धरत था। विजय श्री उसके सनन्‍्मुख खडी थी, किन्तु वह उस राखी की उपेक्षा नहीं कर सका। युद्ध वहीं छोड, विशाल सेना को साथ लेकर चित्तौड की ओर चल पडा तथा अपने ही जाति भाई से भिड गया। उस . निर्जीव राखी के बंधन मे इतनी शक्ति थी कि उससे प्रेरित हो, ऐसे विकट » समय मे भी अपनी बहिन कर्णवती के सम्मान की रक्षा की। इस प्रकार यह 1 त्यौहार मन मे विराट भावनाओ को जगाता है, चाहे कोई हिन्दू हो या ; उसलमान। ऊंचे संकल्प, जाति को नहीं देखते है। यह रक्षा, इन्सान मे / इन्सानियत जागृत करती है। इस देश मे ऐसे अनेक भाई हुए हैं, जिन्होने , अपने जीवन की परवाह नहीं की, अपने सर्वस्व को स्वाहा कर अपनी | अपरिचित बहिन के सम्मान पर आंच नहीं आने दी। राखी के इन धागो ने




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