श्री न्यायसमुच्चय सार | Shri Nyay Samucchayasar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्यानसमु ब्वयसार 1७॥| ध्स्रच्य्ट्रखा व्स्ध्य्श्य्च्य्ध्य्य्ख््य्य्य्य्ट्श्प्प्य्ट्य्टः श्र्ध्य्य््य्च्य्य्य्ध्य्प्प्य््य्ध्य््ध्द्र्ध्य्स्टः च्य्ध्य्ध्य्य्च्प्य्श्ख्ल्य्श्डद्ण्य्प्ज चार घ्यान कथन आरति रोद्र न दिस्‍्टंते, धर्म सकल॑ च संजुतं । संभिक दसेन॑ सुड़ें, गुरु जिलोक वंदितं ॥१२॥ अन्धयार्थ- ( आरति रौद्र न ब्स्टिते ) शुरु महाराज में व गुरु महाराज के कथन में आतंध्यान व रौद्रध्यान या उनका पोपण नहीं है ( धर्म सुकल च सजुत ) किन्तु उनमें था उनके कथन में धर्मध्यान व शुक्लध्यान या उनका पोपण है । उनमें या उनके कथन में ( सुद्ध समिक्‌ दर्सनं ) शुद्र सम्पग्दशन या उसका पोषण है ( ज्िलोक बदित गुरु ) ऐसे तीन लोक से बंदने योग्य गुरु महाराज होते हैं । .. आवाथ - सच्चा शुरू वही है जो धर्मब्यान तथा शुकलध्यान ' का अभ्पासी हो आतेध्यान व गैद्गरध्यान से रहित हो व शुद्ध निश्चय आत्म 'प्रतीतिरु्प सम्यस्दशेन का धारी हो, ऐसे गुरु को तीन लोक के सज्जन नमस्कार करते हैं। एसे गुरु का बथन भी भर्म व शुक्लध्यान का तथा सम्यग्दशन को पुष्ट करने वाला होता है। तथा आते व रौद्रध्यान को दर करने वाला होता है | ध्यान चित्त को किसी पदार्थ में एकाग्रता या लीनता को कहते है उसके चार भेद हैं, दो अशुभ है, वर्योकि संसार के कारण है व दो शुभ है क्योकि मोक्ष के कारण हैं। दःखित परिणाम रखना आतेध्यान है, दृष्टभाव रखना रौद्र॒ध्यान है, आत्मीक स्वभाव मे प्रमालु भाव रखना घमध्यान है, तथा शुद्र उपयोगमयी बीतराग माव रखना शुक्लध्यान है । हर एक के चार भेद हैँ- अनिष्ठ के संयोग होने पर उसके वियोग की चिता करना अनिष्ट संयोगज आतंध्यान है। इृष्ठ के वियोग होने पर उससे मिलने की चिता करना हृप्ट वियोगज आतेध्यान है | रोगादि होने पर ' उसकी पीडा से दुःखित भाव रखना पीड़ा चिंतवन आतंध्यान है। आगामी ,भोगों की अभिल्ापा से उसके सिलने की चिंता करना निदान आततध्यान है। बुद्धिमान को इन चार तरह के आतंध्यानों से बचना योग्य है | हिंसा के करने व कराने की व अनुमति देने की चिंता करना व हिंसा में प्रसन्नता का भाव रखना हिंसानन्दी रौद्रध्यान है | सपा बोलने का, घुलवाने का व सृपा में अनुमति देने का भाव रखना व झठ में आनंद सानना मपानंदी रौद्गरध्यान है | चोरी करने, कराने व अनुमति देने का भाव रखना व चोरी में प्रसन्‍तता मानना चौर्यानंदी रौंद्रध्यान है। _परिग्रह रखने, रखाने व उसकी अलुमति देने के भाव रखना व परिग्रह के होते हुए प्रसन्‍नता च्श्म््प्य््य्म्टय्ल्ड्णप्ण्दाइधरनयलस 1॥७9॥




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