कसाय पाहुड़ सुत्त | Kasay Pahud Sutt

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Kasay Pahud Sutt by पं. हीरालाल जैन सिद्धान्त शास्त्री - Pt. Hiralal Jain Siddhant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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्ि कसायपाहुड्सुत्त ऐसा अवश्य प्रतीत दोता है कि पट्खंडागमकी रचना पर कसाय्रपाहुडका प्रभाव अवश्य रहा है। यहां पर उस प्रभावकी कुछ चची करना अनावश्यक न होगा । कसायपाहुडमें सम्यक्त्वनामक अर्थाधिकारके भीतर द्शेनमोह-उपशामना और द्शनमोह-क्षपणा नामक दो अनुयोगद्वार हैं। उनके प्र|रस्ममें इस बातका विचार किया गया है कि कर्मोक्री कैसी स्थिति आदिके होनेपर जीव दर्शनमोहका उपशम, क्षय या चयोपशम करनेके लिए भ्रस्तुत होता है। इस प्रकरणकी गाथा नं० ६२ के ट्वितीय चरण के वा अंसे निबंधदिः द्वारा यह प्रच्छा की गई है कि दशनमोहके उपशमनको करनेवाला जीव कौन-कौन कर्म-प्रक्ृतियों- का बन्ध करता है १ आ० गुणधरकी इस पृच्छाका प्रभाव हम पट्खंडागमकी जीवस्थानचूलिकाके अन्तर्गत तीन महादंडक चूलिकासून्रोंमें पाते हैं, जहां पर कि स्पष्ट रूपसे कहां गया है-- “हदाणिं पढमसम्पत्ताहिमहों जाओ पयडीओो बंधदि, ताओ पयडीओ कित्तइस्सामो ।” (घटखं० पु० ६ प्रथम मद्दादंडकचूलिका सूत्र १) अर्थात्‌ प्रथभोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हुआ जीव जिन भ्रकृतियोंकोी बांधता है, उन प्रकृतियोंकों कहते हैं। इस प्रकारसे प्रतिज्ञा करनेके 'अनन्तर आगेके तीन महायदंडकसूत्रोंके द्वारा उन प्रकृतियोंका माम-निर्देश किया गया है । इससे आगे कसायपाहुडकी गाथा नं० ६४ के “ओवहड दूण सेसाशि क॑ ठाणं पडिपज्जदि! इस प्रच्छाका प्रभाव सम्यक्‍्त्वोत्पत्तिचुलिकाके निम्न सूत्र पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, जिसमें कि उक्त प्रच्छाका उत्तर दिया गया है-- “ओह दूण मिच्छतं तिण्णि भाग करेदि सम्मतं मिच्छतं सम्मामिच्छत्त |” ( घट्खे० पु०६ सम्य० सूत्र ७ ) अब इससे आगेकी गाथा नं० ६४ का मिन्लान उसी सम्यक्त्वचूलिकाके सून्न न॑० ६ से कीजिए--- उवसामेंतो कम्हि उवसामेदि १ चदुसु वि गदीसु उबसामेदि । चदुसु वि गदीसु उबसामेंतो पंचिदिण्सु का णो दंसणमो एइंदिय-विगर्लिदिएसु | पंचिद्ण्सु उब- बगल । सामेंतो सण्णीसु उवसामेदि, 2 ह पंचिंदिओो य सण्णी सु । सण्णीसु उवसामेंतो गव्भोचक्‍क॑- णियमा सो होइ पज्जततो ॥ तिएसु उबसामेदि, णो सम्मच्छिमेस । गब्भोवक्कंतिएसु उबसामेंतोी पज्जचएसु उबसामेदि, णो अपज्जचएसु । पज्जत्तणसु उबसामेंतो संखेज्जवस्साउगेस वि उवसा- मेदि, असंखेज्जवस्साउगेस वि | ( पट्खे० पु० ६ सम्भम० चू० सु ६) सम्बन्धी गाथा नं० ११० का भी मिलान इसीं चूलिकाके (कसाय० गा० ६४७) इसी प्रकार दर्शनमोहचक्षपणा- सुत्र नं० १९ और १३ से कीजिए--




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