कुतब शतक और उसकी हिन्दुई | Kutab Shatak Aur Usaki Hindui

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Kutab Shatak Aur Usaki Hindui by माताप्रसाद गुप्त - Mataprasad Gupta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“लोचन तो वे देखते हुए होते है जो जगत्‌ ( की वास्तविकता ) को देखते होते है; अपने-आपकों तथा अपने कर्म और क्मछलको बहुतेरे काग भी देखते होते हैं।” स्वार्थी और कर्मछछ-पटु व्यक्तिकी घुछना काग्से स्वाभाविक लगती है। है भोगिती कहती है : “लोवण ते छोइंदीए जे पेम सु बुद्दुंह्न धार । रीभडियां फइ मंडिकइ सव्वसु अपण हार 1९४” “लोचन तो वे देखते हुए होते हैं जो प्रेम धाराकी दृष्टि करते हैं और रीभक जानेपर उसकी भड़ी लगाकर सर्वस्व अपित करनेवाले होते है।”” प्रेमी नेत्रोंकी तुलना उन मेघोंसे कितनी सटीक बैठी है जो भड़ी बाँधकर अपना सव-कुछ दे डालते है ! प्रेम सच्चा वही है जो प्राणीको निःस्वार्थ त्यागके लिए प्रेरित कर सके । योगिनी कहती है : #“लोवण ते लोइंदीए जे लोइंदे अप्प। तीन्‍्ही तिनि अवत्यडी कउ ण॒ करंदा वष्प 1९५” “लोचन तो वे देखते हुए होते है जो आत्मको देखते होते है । उनकी तीन ही अवस्थाएँ--जाग्रत, स्वप्व और तुरीय होती है; वे कभी भी अपने- आपको देंकते नही हैं--सुपुप्तिको नहीं प्राप्त होते है। इस कथनमें कोई कल्पना नही है, कहनेके ढंगमें अभिव्यक्तिकी सरलता-मात्र है । भोगिनी कहती है . लछोडण ते लोइदीए जो अणरत्ता ही रत्त । दीया देह स दज्किया तोइ पडंदा पत्त 1९६” “लोचन तो वे देखते हुए होते है जो ( मादक द्रव्यादिसे ) रक्त न होते हुए भी रक्त होते है, जिनका देह ( परतिगोकी भाँति ) दीपकसे दग्ध हो गया होता हैं तो भी जो (दीपकके पास) पहुँचकर उसमे पड़ते ही है ।”” प्रेमीकी पततिगेसे तुलना पुरानी ही है, किन्तु 'दीया देह स दज्मकिया' मे नवीनता है : पततिगे कनुमव कर रहे हैँ कि दीपक उनको भुलसाकर अधमरा कर चुका है फिर भी वे सह उसपर अपने जीवनका उत्सर्ग करनेके लिए पहुँच ही जाते है | सूमिका छ घूछ




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