द्वादशानुप्रेक्षा | Dwadashanupreksha

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Dwadashanupreksha by लालाराम जैन - Lalaram Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२४. . . दादशापप्रेहा। होफर फिर जल भरनेके लिए भीतर चले जाते हैं उसीमकार गहे श्यांसोच्छ॒बापकी वायु भीतरते जीवनरूपी जलको भर कर छाती है भोर उसे बाहर फेककर खाली होकर फ़िर उसी जीवनरूपी- जेलंको भरनेके लिये भीतर चली जाती है। उप्तका यह क्रम रात दिल प्रतित्तण चछता रहता है भोर इसप्रकार प्रतिक्षए जीवन घटता रहता है । सबको दुःख देनेबाला दावानल अग्निके समान, ओर संबकों प्रत्यक्ष होनेबाला यह यमराज बूढोंको, जवानोंको, राना महाराजा आदि पहा पुरुषोंको भोर दरिंद्री आदि छीटे पुरुषोंको नाश्व करनेके लिये री एक पात्र सदा प्रयरन करता रहता है। इसके सिवाय उसे ओर कुछ काप है! ही नहीं | भाषाये-- हमलोगोंशा जो श्वासोच्छवास प्रतिक्तण चलता रहता है उसीके द्वारा हम लोगोंकी भायु प्रतिक्तण फप होती जाती है जोकि एक दिन भव्य पूरी हो जायगी इसके सिवाय यमराज प्रतिक्ष) जीवोंको बक्षण करनेके उयोगमें लगा रहता है, भांधु परी होने पर तो बह उठा ही. जे जाता. है. परन्तु कभी-२ वह पिना भ्रायु पूरो हुए भी उठ ले जांता है इसलिये प्रत्येक प्राणीको मरनेके लिये संदा तैयार रहना बाहिये। हसेँ पनुष्प जन्मको पाकर संरसे . पहिले रंस्नतेयकी पाप केर लेना चाहिये जिससे कि बीच . में भी पर्योकबदले जाने पर किसी पशारशा दुःख न हो : और मनुषंफ जन सफ़र हो जाये क्योकि रतव्यकी प्राप्ति




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