काव्यमीमांसा | Kavyamimansa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राकथत काध्य-भीमांसाके रवविता कविशन राजशेखर काब्यआास्रके आचार्योक्री उस आंचीन परम्णणामे आते हैं, मिस प्रास्म्म झुदूर अवीवके धूमिल स्षितिजमें केवल अत्पष्टडप से अमिव्यक्षित दे । स्वर्य शबशेखरने 'वांव्यमीमांसा! के आग्म्मम छिखा है कि मिस कवि-रहस्वका उद्यादन वे करने जा रहे हैं, उतवा सर्वप्रथम निर्माग इन्धने किया था। डसी सिलसिलेमें, पाम्यशाज्के मिन्न-मिन्न अंगोके प्रयप्र प्रगेताके रूपमें उन्होंने उक्तिगर्भ, # झुबर्णनाम, प्रचेता, यम, चित्राड्भद, शेष, पुलुस्य, औपकायन, पाराशर, उतप्य, कुबेर, बाप्देव, मरत, नत्दिके घर, धिप्रण ( रृहस्पति ), उपम्रन्यु तथा झुचमारक्य उल्लेख फ्रिया ६१। आज हम जिस परिस्ितिमें हैं, उतमें यह कहना कठिन है कि इन मामीम्से क्तिने प्रामागिक हैं; क्योंकि अधिकाशके विषयमें हमें कोई शान नहीं है। किन्तु इतना निश्रय है कि इनमें से कई नाम ऐसे है जो ऐविहातिक तथा प्रामाणिक हैं। उदाहरण्त३ 'कामपून्रः में सुर्षनाम! और 'कुचमाए को चर्चा आई है। 'मर्त? फे नाव्यशास्र' पी प्रामागिक्ताक्े सम्म्धमें तो कोई शंका हो नहीं है । मरतके दाव्यशाख्रके अन्तमें नन्दिमस्ताः नामक मी उस्हेख है। सम्मवतः यह 'नम्दिभरत? और “नन्दिकेश्वर' ठोयों एक दो । हिल इस प्रप्त॑मक्नो अधिक विस्तार न देते हुए इम इतना तो अवश्य कहूँगे कि भारतीय काब्यन्याक्ककी परम्परा क्सी-न-दिसी रूपमें वैदिक सहिताओंके बुग्से ही चहठी भा रही है | फिन्तु ध्ध्यशार्का स्पष्ट और वैद्यनिक रूप हमें प्रथम प्रथम 'मग्तः मुनिमे अपने नास्य- शाप्न में दिया। बैसे तो 'अमिपगण! में मी राहिल शास्रके रिद्वान्तोंत्ा खान-खाम पर सुन्दर विवेचन मिण्ता है; विम्तु बे अश जिनमें यह दिदेचन रूथ्यक्ष हुआ है, कहाँ तक मरतके माव्यशाज़ते ग्रादीनतर हैं, यह सन्देहासद है। मरतके नाव्यशाकूका समय प्रायः ईसवी सदीका प्राएम माना जाता है । उस समयते वाव्यशाद्ववी थो घारा प्रवाहित हुईं, वह अविच्छिन्त रूपसे चलती चली आई है। वाव्यशाद्धके न भखत-परवर्ची आचार्योमें हम निम्नडिखित नामोंका उल्लेख करना चाहंगे-- ९. 'उम्न कविरहस्य सश्ाक्षाः समाम्तासीत, औक्तिकमुक्तिम्म, रीतिनिणेय सुबर्णेदाम:, आलुभासिर प्रचेशावनः, यमकानि चित्न॑ चिह्नादवदः, धब्दरछेप इछेपः, वालव॑ चुटस्या), भौपन्य- मौपकायनः, कविशय पराशट, अर्थेड्टेपसुवस्यः, उम्रयात््ारिक इुमेर)। बैनोदिक कामदेव, झूपकनिरुपणीय मरणः, रसधिकारिक नत्दिकेखरः, दोषाधिक्ारिक धिपण:, गुणौपादानिक- मुपसस्युग, भौपनियद्दिक कुचमारः इति।ः




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