नृसिंह चम्पू : | Nrasingh Champu

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Narsingh Champu by

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ४६ ) ' उमप्तकी सभा में पहुँचे । सभा क्‍या थी विश्व के वैभव की प्रदर्शनी थी। सारे ही नृत्य- वादा अज्ञेप भप्पराओं के सारे ही विलासोल्छास, वासनाओं के उद्दीपन सारे ही उपसाधन वहां एकत्र थे । नृसिंह को देखते ही प्रह्मद भांप गया कि वह कोई मर्त्य नहीं, स्वयं मगगन्‌ हैं और वह उनका उसी क्षण से भक्त वन गया। किन्तु दैत्यराद्‌ की तो पोरी-पोरी में गये खौर रहा था। वह आगे बढ़ा और उसने अपने सारे ही संदारक अख्र उन पर ऊल दिये । दानवों के वादरू के वादल नूसिंद पर छा गये किंतु सूथे की प्रखर किरणें इन वादलों को पार कर गईं और वे सव धरती पर आ गिरे | नूसिद का इन्द्र अव देत्यराद से हुआ जिसमें अर्त्रों की भरमार से धरती-अंबर एक हो गए और अपने-पराए की संज्ञा जाती रहो। पर देत्यराट्‌ आखिर मानव ही था। भगवान्‌ के पंजों ने उप्तकी छाती विद कर दो ओर वद यमलछोक सिधार गया । प्रस्तुत उपाख्यान बह्मपुराणान्तर्गत नृर्सिहोपाख्यान का परिवर्धित संस्करण प्रतीत होता है। इलोकों में भारी समानता है। कुछ इलोक तो जैसे के तैसे दोनों में उपलब्ध होते हैं । ४... पिदग्धता एवं वर्णन की विशदता की इेष्टि से यह उपाख्यान अन्य उपाख्यानों से कहीं आगे वढ़ गया है. और इस्रमें प्रह्मद को ज्ञानछाभ के लिये न तो नृसिहसे दी लोहा लेना पढ़ता और न और ही किसी प्रकार की श्रास्ति सहनी पड़ती है। निश्चय ही मत्स्यपुराण ने 'न ऋते श्रान्तत्थ सख्याय देवाःः इस उक्ति को भुढाकर अन्ताबास ही भक्त को भगवान्‌ के दर्शन करा दिये हैं. और यह एक वात द्वी इस उपाख्यान की नवीनता को स्थापित करने के लिये पर्याप्त है! द्ैत्यसभा का वर्णन अनूठा है किन्तु दैत्यसभा में इतने वनस्पतियों का क्‍या काम £ से में तो खन्‍्द ही वेक-बूों से सजावट का काम चल जाता है। फिर अन्य वहुत से * धसाधनों को जुटाना ( जैसे नदी आदि ) जहां इस उपाख्यान के रचयिता को देशकालान- मभिशता का चौतक है वहां वह उसकी रसहौनता का भो परिचायक है। थुद्ध का वर्णन इस उपाख्यान का जितना द्ी व्यापक्त है उत्तना ही वह रोमांचमेदक भी ऐ--किसतु नृसिद दैत्यराट्‌ के सुसुल इन्द्र पर श्ससे गहरों धूप नहीं पढ़ती और छावोद्वारी वह लेकालोक भनुद्धासित ही रह जाता है। देत्वराद्‌ के निवन का चित्र भी एकाएक हमारे संमुख आ जाता है। उसके आवश्यक प्रारूप हमारी आंखों से ओझल ही रह जाते हैँ । निश्चय ही मत्त्यपुराण का उपाख्यान अपेक्षाकृत आधुनिक है और श्ससे अहाद के चरित्र में आवश्यक विकास का क्रम अनुदभूत द्वी रह जाता है । पद्मपुराण के पत्मषम खण्ड के ४२ वें अध्याय में नृरतिहचरित का वर्णन इस प्रकार है ४- रू मीष्य उवाच-- इदानीं श्रेतुमिच्छामि द्रिण्यकरिपोवध न ! नरसिहस्य माहाल्यं तथा पापविनाशनन्‌ ॥१॥




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