ध्वन्यालोक | Dhwanyaalok

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Dhwanyaalok by डॉ. नगेन्द्र - Dr.Nagendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका श्ृ घमफत कर सकती है चित्त नहीं, और इसस्प्ए रमछीय नहीं कही जा सकती । स्पर्य झस्शजीने अत्यन्त सबक छाम्दोर्मि इस सिद्धान्दका प्रतिपादन किया है भौर घमत्कार घम्दकी प्राम्टिकों दूर करनेफे डिए हो रसजौगठा शम्दके प्रयोगपर छोर दिया है। निष्कप यह है कि सदि धाकख्णी प्मेनेका सिद्धान्त स्वीकार कर छेते तब तो स्थिति गदर धाती है। ठय तो अमिषा, रूछणा, म्मज्ञना, दाम्मार्थ, रूस्‍््याथ, स्वद्डधार्थ आादिका प्रपस्‍्य ही नहीं खता है। सार्थक उक्ति केबस एक ही हो सकठी है। उसके अर्थको उससे पृथछझू करना सम्मष नहीं हे। परन्यु यदि बे उरुख्ये स्वीकार नहीं करते ैं,--भौर बे बाझाबर्म उसे स्वीकार नहीं करते--सो बाध्यार्थ में स्मणीवदाका झधिवास नहीं माना ला सकता, स्पक्नभार्यम दी माना ब्रावगा--छक्ष्याथर्म भी नहीं क््पोंकि वह मरी बान्वाय्थीे तरह म्यप्यमसात है। रमपीयताका प्रस्पप्त-मप्रस्पछ सम्बन्ध अनिवार्गताः रसके साथ है भौर रस कपमित नहीं हो सकता स्यज्धित ही हो सकता है। घक्कमीफे धम्दोसे ऐसा मार होता है कि ये ऋश्यार्थ और स्पद्रपारषकों अनुपफ्न्न र्थष्ये ठपपन्न करनेका साधन मानते हैं। परन्तु बासतपर्मे स्पिति इसके विपरीत है। वास्याथ स्वयं ही अपने वमस्‍्कार्रौके साथ व्यक्षप (रिसि] का सायघन या माष्जम है। मैं उपयुक गिभेचनको शुस्कओका एक इखका-सा दिध्ान्तरभ्रमण भानता हू , यह उनके अपने कासबसिद्ान्तके ही विर्द है। धघ्वनिफे मेद्‌ जनिके मुझुप दो मेद रैं-:१ रुछभामृस्‍्म ध्वनि भीर २ अमिषामूरा प्वनि | छक्षपामूछा प्यनि--सुघणामत्य प्यनि स्पफ्ठ' खऋणाके झआ्ाभित होती है, इसे अगिव छितवास्पप्थनि मौ कहते हें। इसमें बाष्पाभकी लितध्या नहीं रएती, अबात्‌ बाष्यार्थ बाधित रहता है, ठपके द्वार भमक्ी प्रतीत नए होती | रूदरशामृल्म प्वनिके दो मेद हैं--(अ) भर्पान्तर्सइ्ममित बाब्य ओर (भा) अल्मन्तठिरस्फत वाच्च | भर्पान्द्सदक्मितबाप्यसे भ्रमिप्राय है “जहां बास्पार्थ दूसरे अर्परते सदक्ममित शो जाये अर्थात्‌ छ्ों वास्थाम बाधित छोकर दूसरे झ्र्थमें परिजत हो लाय | ब्यनिकार ने इसके उदाइरजम्बश्स झपना एक छल्मेक दिया है ख्रिसक्रा सबृस्त टिन्दी-रूपान्तर इस प्रकार है-- रब दी शुन सोमा छँ, सदृदय ऊबर्दि सर्याद। कमल कमर है तर्पाद जब रपिकर सतो पिकसाई ॥।' हों कमकड्म भ्॒र्य शो झायगा “मकरस्त्श्री एवं विकूंजता आदिसे मुक्त'--अम्यणा बह निरपक ही नएीं बरन्‌ पुनदक्दोपका माय मी ऐग्य । हएस प्रकार कमढ्य साधारण अर्प टर्प्पुझ ध्यह्मण्पर्भम सश्प्मित ऐो जाता है । श्रस्यन्तविरक्कतबा भय--भस्पन्ततिरस्कृतवा स्वर्मे बाब्याप अस्पस्त तिस्कूत झता है-- उसके शगमग छोड़ ही दिया लाता है| बह प्डनि पदगत भौर बास्पगत दोनों ही प्रदारकी होती है। लनिकारने फ्ु॒णत प्यनिका उदाएरण दिया है-- रपिसकल्पस्त सौमाम्पस्तुपाराणृतमण्डन्नः। मिःश्ययासास्थ इपादशघ्यस्द्रमा न प्रकाशते 1 “साँस सं माँघर दर्पण दे शस बादर भोद छम्रात है चम्दा [7 १... ताक जाजन्ति गुभा जाला दे सदिलपद्ि बेप्रश्ति । रद फ़िरदानुस्धदियाण दोस्त कशडाए कुमकार ॥




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