कुआंरी सलीब | Kuaanri Saleeb

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Kuaanri Saleeb by प्रकाश माधुरी - Prakash Madhuri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सुबह की पहली बस दिव!कर ने पकड़ी | इन दिनो वह पानीपत ही स्थानांतरित होकर आ गया था। गीता से उसने कह दिया कि वह चाहे तो अपने पिता के पास भी जा सकती है। हालाकि कहने के ब1द उसमे स्वयं सोचा था कि रात की उसने घर की दुह्ाई देकर ही गीता को रोका था। गीता यह सममते हुए भी कुछ न बोली वह स्थाभिमानिनी थी। उभके ससस्‍्कारी गृहणीमन ने उसे कुछ न कहने दिया | जाते हुए से कहना उचित नहीं समभा जाता है। फिर बहू स्व्रभाव से पत्ति-विरोधिनी और जिद्दी भी न थी । दिवाकर तो चला ग्रया परन्तु गीता के सरल हृदय में एक शका की विध- बैल का बीजारोपण हो गया । प्रातःकालीव बस में आमतौर पर भीड़ नही रहती । एक पूरी सीट पर बह टागे पार कर अधलेदा हो गया । गाड़ी की रफ्तार के साथ-साथ उसके विचारों की गाड़ी भी पुनः रफ़्तार पकड़ने लगी । बह चला तो झाया है, किस्तु यदि परिस्थितिया वाकई पत्च के अनुसार ही हुई तो सुबोध से वह किस प्रकार आंखें मिलायेगा आखिर सुबोध उसके बचपन का मिन्न है। उसके हृदय पर क्या बीत रही होगी फिर कहीं वह उसकी सूरत देखते ही भड़क न उठे, यदि उसने देखते ही उस पर हाथ चता दिया तो क्या होगा ?ै उसकी कया इज्जत रहेगी? फिर उसे क्या पता कि बह निर्दोप है या नहीं ? शायद उसे अपनी निर्दोपिता प्रमाणित करने का अवसर ही न मिले । पत्न के बारे मे सुबोध को ज्ञान अवश्य ही होगा । जब नीता ने लिखा है कि उसका घर ही उमकी कारा है तो उम्तकी प्रत्येक गतिविधि पर द्वृष्टि तो रखी ही जा रही होगी। इस अवस्था में इस पत्न का डाला जाता भी उससे छुपा न होगा । यदि उसे इस बात का शान है तो अवश्य ही उसकी श्रतीक्षा बडो व्याकुलता से कर रहा होगा और भरा दैठा होगा ।! कुमारी सलीब एटा १७




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