पंतजलिकालीन भारत | Pantjalikalin Bharat

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Pantjalikalin Bharat by प्रभुदयाल - Prabhudayaal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्ट पत॑जलिकासीन भारत करोति कियन्ते कृति कर्ता पठितम्‌ प्लास्वि शाह जादि प्रयोगों से ही स्पष्ट है। वष्टप्पायी के रूपमम ४ ० सूर्जों में से केवस उप्तीस में भिन्न सतबासे आाघारयों का उह्सेख मिक्तता है। इसके अतिरिक्त दो सूत्रों में सामास्यतया माचार्यो का एक-एक सूत्र में 'एके' और 'सर्ज' का तपा बीस सूत्रों में प्राघाम और 'उदौघाम्‌' का उल्लेख है। इस प्रकार, अष्टाध्यायौ में कुछ ५० सूत्र अस्य जातार्यों से सम्बद्ध हैं। अध्ठाप्पापौ--पाणिन प अजप्टाप्यामौ जैसा कि माम से सपप्ट है, आराठ अध्यायों में डिभवंत है। प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं सौर कुछ मिलाकर ३९८१ सुत्र। इनमें वदि १४ प्रत्याहार-सृज जोड़ दें तो मह संस्पा ३९८५ हो चातौ है।' अप्टाष्यायी के प्रथम दो अध्यायों में पर्दों के सुबन्द तिदन्त मेर्दों और बास्य में उसके परस्पर सम्दन्थ पर बिचार किया गया है। दृ्ौय अम्माय में धातुर्गों से क्षब्द-सिद्धि का विवेचन तथा भतुर्ण मौर पंत्रम अध्याय में प्राति परदिकों एव पम्द-सिद्धि का विघार है। पष्ठ एवं सप्तम रध्पाय में सुबन्त एवं सिडस्त शर््दों की प्रह्ृति प्रत्पपात्मक सिद्धि एवं स्वर्रों का बिबेचत है ठपा अप्टम शृष्णाय में सप्रिहित पढों के छीपोक्ष्यारश से बर्जो मा स्‍्वरों पर पड़तेगासे प्रभाष की चर्चा है। सद्दि प्रतिपाद्य मिपर्या कौ शप्टि स विचार किया जाय ठो संज्ञा शौर परिभाषा स्वरों और ब्य॑जर्नों के प्रकार, बाएु-पिड़ कियापद कारक विमकित एक्लेप समाप्त कृदन्त सुबन्त तठित आजम खौर आादेध स्वर विचार, दित्व औौर सस्पि मे थष्टाप्याणी के प्रमुरू प्रतिपाध विपय है। पाणिनि के मत से प्रकृति और प्रश्यय दोमों का पृपक-पृषक अर्थ होता है। इसौसिए, उन्होंने सर्वत्र प्रत्पप का अर्च दिया है। मे एंप्द अर्द और उसके सम्बन्ध को नित्य सातकर चहते हैं, इसछिए उसके स्पाकरण से सिद्ध हो जाने पर भौ बेद तबा छोकमापा मेँ जम्पषह॒त शब्दों का प्रयोग उ्हें इप्ट नहीं वा। प्राभीत प्रस्‍्थों में पाणितीय शास्त्र के चार साम मिलते है---अप्टक अप्टाध्यायी सम्टागुशासत और बृत्ति-सूत्र। भ्रस्यानुघासन छष्द का प्रयोग भाष्य के जारम्म में ही हुआ है। पुर्पोत्तमदेव सृप्टिमराचार्य मेघातिधि स्यापकार और बयादित्य महाभाप्म के झादि बाक्य 'झब पस्टासुक्याससम्‌! को भी पाथिनि-क्ृत मारते हैं। भाप्यकार का मह कपत नि अप धाम्दौपभिकारा्- प्रयुक्त हुना है, इसौ मत का पोषक है। शृत्ति-सूत्र लाम के जिपय में गाजेश ने कहा है सिः 'पालितीय सूत्रों पर बृत्ति हे जौर बाततिकों पर गहीं हैं। बृत्ति-सूज धम्द इस भन्तर को स्पष्ट करते के छिए प्रयुक्त होता है।' लाता चलगीमी ते अपने ब्याकरण (२११) १ अप्टाध्पायी को बेदांग सातनेबालों श्ये परम्परा में प्रचक्तित मौलिक पत्ठ मैं यह संक्पा १९८३ है जबक्ति 'जीनि सृब्रतहल्यत्रि दपा लबशताति अर पब्जदतिप्ष सुत्रायां पाषितिः कूपान्‌ स्वपस्‌' इस उक्ति के अनुत्तार पह संस्पा ३९९६ है। भौकछिक पए़ में ११ सूत्र ऐसे हैं, जिममें ९ को भाष्यकार मै दातिक तया र२ कौ गणसूत्र साता है। इस प्रदार, यह संस्‍्या ३९७२ हो पहू जाती है। काशिका छोर सिक्षान्तकौमुददौ में परम्पणपत बाड़ के अनुप्तार ३९८३ एंक्या ही री हुईं है। २ परालितौपसुदाणां बुत्तितदमाबाद दातिकातां शशमाबाचक्च तयोइंवस्पोदोषतायेरस्‌। २१ १भाष्य बर सागेझ 4 छह




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