श्रीमद वाल्मिकीय रामायण | Shrimad Valmikiya Ramayanam (mahatya,baalkand,ayodhyakand)

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Shrimad Valmikiya Ramayanam (mahatya,baalkand,ayodhyakand) by महर्षि वाल्मीकि - Maharshi valmiki

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(५६) है कि आज़ादी के बाद से राष्ट्रभापा के पक्षधर ही उनको ग्रायव करने पर लगे हैं। इसी प्रकार मराठी छ है । इनके अतिरिक्त क्षरवी, इत्ानी आदि के कुछ व्यञ्जन हैं, किन्तु उतको नाग़री की ईनिक लिपि में अनिवायंता रखना आवश्यक नहीं। विशिष्ट भाषाई कार्यों में, ज़रूरी मानकर, उन विशिष्ट भाषाई स्वर-व्यंजनों को चिह्न देकर दरसाया जा सकता है | क्षंप्रेज्ी--व्यामोह भी ! भादर्दो भी ! अंग्रेजी की लिपि-जैसी पंगु लिपि शायद ही संसार में कोई हो। 'डबलू'--तीन अक्षर, चार मात़ाएँ, किन्तु वास्तविक्ष ध्वनि (व) का लोप ! शब्दावली इतनी निरीह कि उसमें ५०% से अधिक शब्द विदेशी भाषाकों के हैं। अपनी छोटी सी धरती पर यह ग्ररीव भाषा, फ्रंच शाहंशाही के आ-धमकने पर, अपने फ्रेंच-भक्त अंग्रेज वन्धुओं ही द्वारा लताड़ी गई, जैसे हमारे भग्नेज्ञी-भक्त भारतीय उसी शान में राष्ट्रभाषा का तिरस्कार करते हैं। बे अग्रेज़ी से नसीहत लें कि दुर्दशाग्रस्त, पंगु लिपि पर आधारित, शब्द-निध्धव होकर भी कैसे होसला क़ायम रखकर उसने विश्व-साञ्राज्य स्थापित किया। उस होसले को आदशे मानकर अपनी समृद्ध राष्ट्रलिपि भौर राष्ट्रभापा को विश्वसम्मान दिलायें। तदर्थ अरबी लिपि का आदर्श सम्पुख । और यह कोई नथी वात नहीं । नितान्‍्त भपरिवतंनशील कहे जाने वालों की लिपि 'क्षरबी' में केवल २७-२८ अक्षर होते हैं। भाषा के मामले में वे भी अति उदार रहे। “क्षिल्म चीन (अर्थात्‌ दूर से दूर) से भी लाओ7'-- यह पेग्रम्बर (स॒०)का कथन है। जब ईरान में, फ़ारसी की नई ध्वनियों च, प, ग, आदि से सामना पड़ा तो उन्होंने उनको क्षरवी-पोशाक-- चे, पे, गाफ़ पहना दी। जब हिन्दोस्तान भाये तो ट, ड, ड़ आदि से सामता पड़ने पर क्षरबी ही जामे में टे, डाल, ड़े आदि तैयार कर लिये। यहाँ तक कि सिन्धी में नागरी के सब महाप्राण और अनुनासिक, तथा सिनन्‍्धी के विशिष्ट अन्तःस्फुट चार अक्षरों को भी क्षरबी का लिबास पहना दिया गया । फिर नागरी' हि तो ओौदाये का दावा करते हैं, उनको परेशानी क्या है? और नागरी में भी तो परिवतेन होते रहे हैं। ऋग्वेद के प्रथम मंत्र में प्रयुक्त छ को छोड़ चुके हैं, और ड़, ढ़ आदि को अवर्गीय दशा में जोड़ चके हैं| नागरी लिपि में कुछ ही व्यंजनों का अभाव है। उनमें से कुछ को स्थायी तोर पर ओर कुछ को अस्थायी प्रयोग के लिए गढ़ सकते हैं। 'भवन वाणी दूस्ट' ने यह सेवा बड़ी सरलता, सफलता भोर सुन्दरता से की है । स्व॒र ओर प्रयत्त (लह॒जा) का अन्तर । अब रहे स्वर । जान लीजिए कि प्रमुख स्वर तीन ही हैं-- अ, इ उ-- उनसे दी, संयुक्त (डिप्थांग)आदि बनते हैं। अतिदीध॑, प्लुत लघु, अतिलबु्‌ संवृत, विवृत आदि विश्व में अनेक रूपों में बोले जाते हैं । भारतीय वेदिक एवं बंस्कृत व्याकरण में अनेक हैं। हे स्वतंत्न स्वर नहीं हैँ,




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