सुन्दरकाण्ड | Sundarkand

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Sundarkand  by महर्षि वाल्मीकि - Maharshi valmiki

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भरीगणेशायनमः॥ श्रीवास्मीकीयरामायण सुन्दरकाण्डभाषा प्रा, -ॐ- ., ' (प्रथमःसर्गः ) ` . | दोहा-कनक वरण अर पैट समः धरे सप विशार ॥ गजि धोर रामहि सुमिर , चल्यों अंजनी लाल ॥ ततोरावणनीतायाःसीतायाःशह्कर्षणः ॥ इयेपपदमन्वेहंचारणाचरितेपथे ॥ ३॥ ` तिके पीछे श॒ओंके दमन करने वाले हनुमानजी राबणसे हरं सो. ताजीको टड़नेको जिस मार्ग में सिंध चारण गण जाया करतेंहें। उषी आकाश मार्ग होकर जानेंकी इच्छा करनें लगे ॥ ३॥ जो ढूसरे से न करा जावे ऐसा दुष्कर कर्म करनेके अभिलाषी होकर विघ्न रदित गरदन ओर मस्तक उठाये बड़े वृषभकी समान शोभायमान होने लगे॥ २॥ तहां वह धीर महावली हलुमान वैदूये मृणिके वर्णकी समान और जछ प्राय हरी २ पासोंके समूह में यथा सुख विचरनें लगे ॥ ३ ॥ वह हलुमा- नी वहे रहने वाले पक्षियोंकी तरातित करते, अपनी छात्ीकी रगड़से वृक्षोंकी गिराते अति बढ़ेहुए बहुतसे मगोंको हनन करते हुए सिहकी स- मान शोमित होते हुए ॥ ४ ॥ पवतके स्वभावपिद्ध, सखतः कष्ण, कने- री मजीठी-रंगकी पद्मराग मणियोंसे और पर्बृतोंपर आप उत्पन्न हुई विमल धातुओंसे अलंकृत ॥ ৫ ॥ अनेक भांतिंके भूषण वद्ध धारण किये अपनेरे परिवारों सहित; देवताओंकी समान कामरूपी -यक्! गन्धै, किन्नरः और सर्पोंसे सेषित ॥ ६ ॥ ओर श्रेष्ट हाथियोंके समहोंसे व्याप्त उस महे” द पवैतकौ तदी में इस प्रकार रहनेंसे वानर श्रेष्ठ हुत॒मान सरोवर में स्थित हाथीकी समान शोभित हये ॥ ७ ॥ इमान सू, मदनः पवनः ओर दरे प्राणर्यको हाथ २१ आकाश में जानेंकी मति करते हुए ॥ ८ ॥ वह चतुर अपनी उत्पत्तिके हेतु पवन देवताओं पूर्व मुखहा ६७ २ हे + ০




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