षटखंडागम खंड 1 | Khatkhandagamaha Khand 1

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Khatkhandagamaha Khand 1 by हीरालाल जैन - Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धवराके अन्तकी ग्रशस्ति ११ वाणास्भोघिनभरशशाकतुलिते जाते शकाब्दे ततो वर्ष शोभकृताहये व्युपनते मासे पुन. श्रावणे । पक्षे कृष्णविपक्ष वत्तिनि सिते बारे दृशम्यां तिथों स्वर्यातः शुभचन्द्रदेवगणभत्‌ सिद्धांतवारानिधिः ॥ अर्थात्‌ शुभचन्द्रदेवका स्वगेवास शक संवत्‌ १०४५ श्रावण उाह्क १० दिन सितवार ( शुक्रवार ) की हुआ । उनकी निषदा पोस्सछ-नरेश विष्णुवर्धेनके मंत्री गंगराजने निर्माण कराई थी | शिमोगसे मिले हुए एक दूसेर शिलालेखमे बन्नियके चैत्याल्यके निर्माणदा समय शक सं० १०१५ दिया हुआ है और उसमे मन्दिस्के लिये भुजबरूगंगपेर्माडिदेवद्वारा दिये गये दानका भी उछेख है | अन्तमे देशीगणके शुभचद्रदेवकी प्रशंसा भी की गई है। ( एपी- ग्राफिआ कर्नाठिका, जिल्द ८, लेख नं० ९७ ) खोज करनेसे घवला प्रतिका दान करनेवाली श्राविका देमियक्कका पता भी श्रवणबेल्गुलूके शिछालेखोसे चढछ जाता है। केख न० 9६ में शुमचन्द्र मुनिकी जयकारंके पश्चात्‌ नागले माताकी सन्तति दंडनायकित्ति छक्कछे, देमति और बूचिराजका उल्छेंख है और बूचिराजकी प्रशसाके पश्चात्‌ कहा गया है. कि वे शक १०३७ वैशाख खुदि १० आदित्यवारको सब परिपरिह त्याग पूर्वक स्वगवासी हुए और उन्हींकी स्घृतिमें सेनापीत गंगने पाषाण स्तम्भ आरोपित कराया | लेखके अन्तमें * मूलसंध देशीगण पुस्तक गच्छके शुभचंद्र धिद्धान्तदेवके शिष्य बूचणकी निषद्या ! ऐप्ता कहा गया है| इस लेखमे जो बचणकी अ्येष्ठ भगिनी देमातिका उल्ेख आया है, उसका सविस्तर वर्णन लेख नं० ४९ (१२९) में पाया जाता है जो उनके संन्यासमरणकी प्रशस्ति है। यहां उनके नाम-देमति, देमवती, देवमती तथा दोबार देमियक्क दिये गये है और उन्हें मूलसंघ देशीगण पुस्तक गच्छके शुभचन्द्र सिद्धान्तदेवकी शिष्या तथा अओष्ठटिराज चामुण्डकी पत्नी कहा है । उनकी पधर्मबुद्विकी प्रशंत्ता तो छेखें खूब ही की गई है। उन्हें शासन देवताका आकार कहा है, तथा उनके आहार, अभय, औषध और शाख्रदानकी स्तुति की गई है। उस छेखके कुछ पद इस प्रकार हैः--- र्‌ आहार त्रिजगजनाय विभय भीताय दिव्पोषध, व्याधि७व्यापदपेतदीनघुखिले श्रोत्र च शाखागप_म, । एवं देवमतिस्सदेव ददती भ्रप्रक्षयें स्व|युषा- महेदेवम्तिं विधाय विधिना दिव्या वधूः प्रोदभूत्‌ ॥ ७ ॥ है आसीत्परक्षोभकरप्रतापशेषावनीपालकृतादरस्य । चामुण्डनाझों वणिजः प्रिया स्री सुख्या सती या भुवि देमतीति ॥ ५ ॥




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