मैं जो हूँ | Main Jo Hun

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Main Jo Hun by विश्वनाथ सचदेव - Vishvanath Sachadev

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चलती हुई गाड़ी से पेड़ों को भागते देखने के भ्रम-सी सचाई है गाड़ी चलती है, पेड़ नहीं चलते हैं, लेकिन हम भ्रम को सचाई मान बार-बार अपने को छलते हैं। जान बूझ अपने को छलना भी सुख ही है, या शायद सुख की परिभाषा भी यही है। वचपन में दादी खिलाती थी हींग हलवे में डालकर, दादी खिलाती थी हींग, हम खाते थे हलवा, हो जाता था पूश उद्देश्य यूँ दोनों का, ऐसा ही कुछ कुछ होता है अब भी माँगता हूँ सुख मैं ढलते उजाले का और वहीं चुपचाप रात्त उत्तर आती है, फिर भी मैं सूरज के ढलने का आशिक हूँ, इसीलिए चाहता हूँ पंछियों की पॉत को उड़ाता फिर देख लूं, किरणों के हाथ से वीता पल छीन लूं, रात के अंधेरे से मुझको डराओ मत, मुझको सुनाओ मत धरती के भीतर के कम्पन की आहहें, भूचाल आयेगा, आने दो, सारी उथल-पुथल, सारा विध्वंस स्वीकार है, हर नयी सभ्यता हिसी हड़प्पा के खण्डहरों के पार है। हर विध्व॑ंस मै जो हूँ / 25




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