बंधनमुक्ता | Bandhan Mukta

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Bandhan Mukta by रांगेय राघव - Rangaiya Raghav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पकड़ लौं जिसने सहस्रों भुजा अपनी गाड़कर पृथ्वी, सबल पौरुष दिखा कर, छाँह में जिसकी सहश्नों पक्षियों का मधुर कलरव गूंजता है, भीम बरगद है तुम्हारा जेठ, इसको सिर झुकाओ । बहुत इसकी छाँह में मैंने रचे हैं गीत निर्भय, पांथ इसको स्नेह से हैं याद करते मंजिलों पर पहुँच अपनी, व्योम के तृफ़ान जब हैं दीख पड़ते, रोष से यह फड़कता है, घास तक इसके चरण पर शरण पाकर आँधियों को टोकती है, यह न कुछ प्रतिदान तुमसे माँगता है । [5] मृगनयनि ! गंभी र-सी क्‍यों दीखती हो ? कौन मौन रहस्य मन में डोलता है ? मुस्क राहूट होंठ पर जद काँपती है, क्यों न मन अपने प्रलय को खोलता है ? है नया घर, क्या अजाना है यहाँ सब ? इसलिए घर की अभी सुधि आ रही है ? वया नही विश्वास होता है अभी भी ? वया न मन से मन अभी भी बोलता है ? यह रजत घन जो कि नभ में सरकते हैं, सीपियाँ जेसे निकालीं सिध्‌ में से तिमिर-मछओं ने किनारे पर पटक दीं, और संध्या-ता रिका लोभिन अकेली एक कन्या-सी इन्हें है देखती यों टुकु र कैसी । प्राण ! जीवन संतरण का खेल है, यह जान लो तुम ! दाह कैवल सांत्वना है, सत्य केवल यातना है। ही मिलन कोई यहाँ पर दुःख का तो अंत जग में प्रिय यहाँ होता नही है। एक की सापेक्षता ही नव्य पहलू है जगाती, बंधनमुक्ता / 27




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