व्यंजना और नवीन कविता | Vyanjana Aur Naveen Kavita

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Vyanjana Aur Naveen Kavita by राममूर्ति त्रिपाठी - Rammurti Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ ) यह धारणा है. कि वर्ण यथृपि नित्य है, तथापि उसका प्रकाशन उच्चरित ध्चनि के आंधीन है । जब ध्वनि का उच्चारण होता है, तब बर्ण का प्रकाक्ष हो जाता है और जब ध्वनि घिनष्ठ हो जाती है, तब उसका साक्षाप्कार भी स्थगित हो जाता है | इन कोगों का यह भी कहना है कि व्यापक एवं नित्य वर्ण के भव्यक्ष में स्तिमित वायु प्रतिबंधक है, पर जब सुख से वायु निकरूती है, ती उसके धक्के से वह अतिबंधक विनष्ण हो जाता है और फिर प्रत्यक्ष होता है । इस रीति से नैयांयिकों का अनित्यपक्ष में जो यह तके है कि 'बारूक शब्द करता है” इस व्यवहार से यह लि होता है क्रि शब्द एक ऐसा तत्व है जो 'किया जाता है उत्पन्न किया ज्ञाता है और 'किया बह जाता है? जो अनित्य होता है--बह भी कट जाता है | क्योंकि मीमांसकों की दृष्टि से शब्द कर्से का तास्पर्थ दाद के प्रकाशन से है; कुछ उत्पादन से नहीं। अथवा व्यंज्षक ध्वनि की “उत्पत्ति? का व्यंग्य वर्ण में औपचार्कि प्रयोग है | निध्यपक्ष के अनुकूछ हन कछोगों का एक तक और भी है कि प्रायः छोग यही कहते हुए सुने जाते हैं कि 'मैंने* दस बार गौ शब्द का उच्चारण किया, दस गी शब्द का उच्चारण किया, सो नहीं इस व्यवहार से यह स्पप्ठ ही सिद्ध होता है कि गौ शब्द एक ही है, उसकी उच्चारण द्वारा अभिव्यक्ति दस बार हुईं है । शब्द के साक्षात्कार की प्रक्रिया के संबंध में इन छोगों का रास्ता दूसरा है। श्रोग्रेल्द्रिय प्राप्यकारी इन्प्रिय है। प्राष्यकारी इन्द्रिय का ताप्पर्य यह है कि वह इन्त्रिय विषय देश में जाकर विपय से संबद्ध होकर उसका अकाश करे | उदाहरणार्थ जब चक्षु इन्द्रिय विषय से संबद्ध नहीं होती, तो वह उसका प्रकाश किसी प्रकार नहीं कर सकती । यह सिद्धांत वेदारितियों एवं वैयाकरणों का है ( इन छोगों करे यहाँ श्रोश्रेश्ह्रिय ही विषय देश को गमन करती है ) पर मीमांसकों के यहाँ नैयायिकों की भांति श्रीत कहीं जाता नहीं ओर जाने का कोई कारण भी नहीं, क्‍योंकि शब्द तो व्यापक अर्थात्‌ सर्चन्न है, अतः (--भुखोद्धत वायु संबोग विभागा। शब्दप्रत्यज्षप्रतिबंधकों भूत घ्तिमितवायुं दूरी कुबन्तीति ततः प्रत्यक्तम?--पनातन धर्मोद्धार! प्र० ख्० (० १३९ । २--दशक्ृत्व) गी शब्दोच्चारे दशवारमुच्चारितों गो शब्द; इत्ये व बदति, न द॒श गो शब्दा उच्चारिता इति | श्रतोडपि शब्द। नित्य; बही, पृ० ११४




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