मतवाला की होली | Matwala Ki Holi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
116
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मतवाले की बहक / 25
अंगोरा एसेम्बली ने स्विटजरलैण्ड भेज दिया। अब अल्लाह मिर्याँ वहाँ से
अपना उपनिवेश उठा लें।
पर, मि० दास, श्रीयुत लालाजी और हकीम साहब ने तर्क का तूफ़ान
बरपा कर दिया, युक्तियों का जाल बुन डाला और दलीलों का दरिया बहा
दिया । परन्तु महात्मा के असहयोग सिद्धात का एक केश भी न हिला ! “न टरे
पग भेरुहूँ ते गछ भो, सु मनो महिं संग बिरंची रचा !”
8. भरे ओ, मुहरंगी सूरतवाले खब्वीसो, दक्षियानूसों और आबनूसो !
ज़रा इस होली के मौक़े पर तो हँसो | यों न हँसी आती हो तो 'स्वराज पार्टी!
की अबल पर हेँसो, नौकरशाही की अदूरदर्शिता पर हँसो, 'मतवाबा' के
नवकालो पर हुँसो, और परिहास के बदले ग़लीज़ वमन॒करने वाले सम्पादकों
और लेखकों की दशा पर हँसो ! तुम्हे तुम्हारे बाप की कसम, एक दफ् ज़रूर
हँस पड़ो !
[ बर्षं 1, संख्या 30--15 मा, 1924 ]
9. लोग कहते हैं- होली आई | हम कहते हैं--होली गई ! पूछिये,
कहाँ ? क्यों नहीं, कोई घुलाने वाला भी तो हो ! उड़ा ले जाने वाला जितना
चालाक था, बुलाने वाला अगर उसका भी चचा हो, तो आना क्या मुश्किल
है ? सुबह-शाम में आ सकती है | मगर वही मेकराज़ी चाल ! क्या बहू चाल
महात्मा गाँधी नहीं चल सकते ? लोग तो उन्हें लक्ष्य कर कहा करते हैं कि
'भतीजों' को “चचा” अच्छे मिले हैं ! वेशक “चचा' तो ऐसे अच्छे मिले हैं कि
“भतीजे” अपने बाप का जमाना भी भूल गए !
10. सरकारी नौकरियां सूखी हृड्डियाँ हैं। हिन्दू और मुसलमान 'निटिव
डॉग' हैं । चवा रहे हैं चाव से और चख रहे हैं अपने'ही। मूंह के रक्त का स्वाद !
फिर भो तारोफ में कहते जा रहे हैं कि 'ऊख में पियूय में मयूख में न पाई
जात, जैसी मधुराई सूखे हाड़ के चवाने में |”
[वर्ष 2, संख्या 29--7 मार्च, 1925]
11. थोड़ा-सा गुलाल, भुत-मावन भगवान् शंकर के-प्रलयंकर चरणो पर,
जिनमें चंचलता आते ही अनन्त ब्रह्माण्ड आपस में एक दूसरे से घबके लेने
लगते हैं, ज्वालामुयियों का समूह भपनी छाती के अग्नि-स्फुलिगो से आकाश
को आग-आग करने लगता है, समुद्र सूघ जाते हैं, पृथ्वी पर हाहाकार उप-
स्थित हो जाता है !
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