ज्ञानार्णव | Gyanarnav
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
472
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ज्ञानाणेवम् | ए्
अर्थ--श्रीमत् कहिये शोभायमान निर्दोष भद्कलंक नामा आचार्यकी पवित्र वाणी
है, सो हमको पवित्र करों और हमारी रक्षा करो । केसी है वाणी ः अनेकान्त स्पाद्वाद्रूपी
आकाशर्म चन्द्रमाकी रेखासमान आचरण करती है। भावाथे-भट्ञकलंक नामक आचार्य
स्याद्गाद विद्याके अधिकारी हुए, उनकी वाणीरूपी चन्द्रमाकी किरणें स्याद्वादरूपी आकाशरमें
प्रकाश करती हैं ॥ १७ ॥
आगे आचाये महाराज अपनी कृतिका प्रयोजन प्रगट करते हैं,-
भवप्रभवदुवारकक््लेशसन्तापपीडितम् ।
योजयाम्यहमात्मानं पथि योगीन्द्रसेविते ॥ १८ ॥
अथे---आचारये महाराज कहते हैं कि, इस अंथके रचनेसे संसारमें जन्म ग्रहण करनेसे
उत्पन्न हुए दुर्निवार छेशोंके सन््तापसे पीडित मैं अपने आत्माको योगीश्वरोंसे सेवित ज्ञान
ध्यानरूपी मा्गमें जोड़ता हूं। भावार्थ-यहां अपना प्रयोजन संसारके दुःख दूर करनेहीका
जनाया है॥ १८ ॥ |
न कवित्वाभिमानेन न कीतिप्रसरेच्छया
कतिः किन्तु मदीयेयं स्ववोधायेव केवलम ॥ १९ ॥
थ--यह ग्रन्थरूपी मेरी कृति ( कार्य ) है, सो केवल मात्र अपने ज्ञानकी वद्धिके
लिये है | कविताके अमिमानसे तथा जगतमें कीर्ति होनेके अभिग्रायसे नहिं की जाती है।
भावार्थ--यहां आचाये महाराजने ग्रन्थ रचनेमे छोकिक प्रयोजन साधनेका निषेध
किया है ॥ १९ ॥ !
आगे सत्पुरुषोंके शात्र रचनेका विचार किप्त प्रकार होता है सो दिखाते हैं,
अय॑ जागाति मोक्षाय वेत्ति विद्या भ्रम॑ त्यजेत |
आदत्ते समसाम्राज्यं स्वतत्वाभिमुखीक्ृत४॥ २० ॥
न हि केनाप्युपायेन जन्मजातइसंभवा ।
विषयेधु महातृष्णा पश्य पूंसां प्रशाम्यति ॥ २१॥
तस्याः प्रशान्तये पूज्येः प्रतीकार; प्रदर्शितः ।
जगज्जन्तपकाराय तस्मिन्नस्यावधीरणा ॥ २२॥
अनुहिग्नेस्तथाप्यस्य स्वरूप बन्धमोक्षयो:
कीरत्त्यते येन निवेदपद्वीमधिरोहति ॥ २३ ॥
निरूष्य सच्च को5प्युन्चैरुपदेशो5स्य दीयते । ७,
येनादत्ते परां शुद्धि तथा त्यजति दुमेतिम ॥ २४ ॥
अथ--सत्पुरुष ऐसा विचारते हैं के, यह प्राणी अपना निमस्वरूप तत्त्के सन््मख
२
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