पटखंडागम | Patkhandagam

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Patkhandagam by पंडित हीरालाल जैन - Pandit Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विषय-परिचय [ (७ उपदेश सूत्रसिद्ध हैं, क्योंकि चारों आलुपूरवियोंके अव्पबहुत्वका विचार इन दोनों उपदेशोंका आलहूम्बन लेकर किया है। गोत्रकम--गोत्रकमिका अर्थ है जीवकी आचारगत परम्परा। यह दो प्रकारकी होती है--उच्च और नीच | इसलिए गोत्रकर्मके भी दो भेद हो जाते हैं--उच्चगोत्र ओर नीचगोत्र | ब्राह्मण परम्परामें रक्तकी आनुवंशिकता गोत्रमें विवक्षित है और जैन परम्परामं आचारगत परम्परा विवक्षित है | इसका अमिप्राय यह है कि ब्राह्मण परम्परामें जहां उच्चत्व और नीचत्वका सम्बन्ध जन्मसे अर्थात्‌ माता-पिताकी जातिसे लिया गया है, वहां जैन परम्परामें यह वस्तु सदाचार और असदाचारसे सम्बन्ध रखती है। इसी कारण वीरसेन स्वामीने अनेक प्रकारके शंका-समाधानके बाद उच्चगोत्रका लक्षण कहते समय यह कहा है कि जो दीक्षा योग्य साधु आचाखाले हैं, तथा साधु आचारबालोंके साथ जिन्होंने सम्बन्ध स्थापित कर लिया है, जिन्हें देखकर “आये! ऐसी प्रतीति होती है, और जो आये कहे भी जाते हैं, ऐसे पुरुषोंकी सन्‍्तानको उच्चगोत्री कहते हैं और इनसे विपरीत परम्परावाले नीचगोन्री कहलाते हैं । अन्तरायकर्म-- दानशक्ति, छाभशक्ति, भोगशक्ति, उपभोगशक्ति और वीर्यशक्ति ये जीवकी स्वभावगत पांच ग्रकारकी शक्तियां मानी गई हैं। इन्हें पांच लब्धियां भी कहते हैं। इन्हीं पांच लब्धियोंकी ग्राप्तिमें जो अन्तराय करता है उसे अन्तराय कम कहते हैं। न्यूनाधिक रूपमें सब संसारी जीवोंके अन्तराय कमका क्षयोपराम देखा जाता है, इसलिए अपने अपने क्षयोपशमके अनुसार प्रत्येक जीवके ये पांच लब्धियां उपलब्ध होती हैं और तदनुसार इनका कार्य भी देखा जाता है | छोकमें माला, ताम्बूल आदि भोग; और शब्या, अख़ आदि उपभोग माने जाते हैं। घनादि- ककी प्राप्तिको छाभगिना जाता है, ओर आहारादिकके प्रदान करनेको दान कहा जाता है। इन वस्तुओंका ग्रहण होता तो है कषाय और योगसे ही; पर इनके ग्रहणमें जो भोग, उपभोग और छाभ भाव होता हैं वह अन्तराय कर्मके क्षयोपशमका फल है | इसी प्रकार आह्ारादिकका दान होता तो है कषायकी मन्दता या उसके अभावसे ही, पर आह्यरादिकके देनेंमे जो दान भाव होता है वह भी दानान्तराय कमके क्षयोपशामका फल है। आशय यह है कि अन्तराय कर्मके क्षय और क्षयोपशमका कार्य इन भोगादिक भावोंको उत्पन्न करना है। यदि मिथ्याद्ष्टि जीव है तो वह पर वस्तुओंके इन्द्रियोंक विषय होनेपर या उनके मिलनेपर उन्हें अपना भोग आदि मानता है, और यदि सम्यर्दृष्टि जीव है तो वह स्वके आधारसे स्वमें ही अपने भोगादिककों मानता.है। भोगादि रूप परिणाम स्वमें हो या परम, यह तो सम्यक्त्व और मिथ्यात्वका माहात्म्य है। यहां तो केवल आत्मामें ये भोगादि भाव क्‍यों नहीं होते हैं, और यदि होते हैं तो किस कारणसे होते हैं, इसी बातका विचार किया गया है और इसके उत्तरस्वरूप बतछाया है कि भोगादि भावके न होनेका मुख्य कारण अन्तराय कर्म है। भोगादि भाव पांच हैं, इसलिए अन्तरायके भी पांच ही भेद हैं।




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