सनातन धर्मोद्वार | Sanatan Dharmodwar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धर्मों रक्षति रक्ितः 4 भूमिका अब काशी में विश्वविद्यालय के स्थापन करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया था, उस सम्रय विश्वविद्यालय का एक प्रधान उद्देश्य यरद्द प्रकाश किया गया था कि घामिक दया नीति सम्बन्धों शिक्षा देकर नवयुवकों में मानसिक बल के साथ साथ धमंबल और घरित्र-बल घढ़ाया जाय । अस्ताव के प्रकाश द्ोमे पर कई मित्रों ने यह पूछा कि हिन्दू जाति में कितने ही सम्प्रदाय हैं. और सभी अपने अपने सम्प्रदाय के अनुसार अपना धार्मिक जीवन थनाते दैं। ऐंसा कौन प्रत्थ है जिसको पढ़ाने में सब साम्रद्याय वालों की सम्भति द्वो जावेगी। मैंने यह उचित समम। कि सनातनधर्म का एक पेसा संप्रह चनाया जाय जिसको सब सम्प्रदाय स्वीकार करें और जिसके द्वारा नवयुवकों को धर्म के सिद्धान्तों की भर प्रधान 5पदेशों की शिक्षा मिले। ऐसा एक संप्रद बनाया गया और जनवरी १६०६ में प्रयाग में श्रखिल-भारतवर्षोंग सना- तमधर्म मद्दासभा के सामने कुम्म मेले के अवसर पर भ्रुफ के रूप में रक़्ा गया। १६०६ के क्ुम्म के अवसर पर सबातनधर्म मद्ासभा के समापति पृज्यपाद गोवर्धन मठ के श्री शंकराचार्य जी ये। सभा में और भी घड़े बढ़े विद्वान भार तपस्वी उपखित थे। एक सहस् के लगभग सप्रद की प्रवियाँ विद्वानों के सामने खख्री गई'। विद्वानों ने समर को बहुत अच्छा माना और यह्द सम्मति प्रकट की हरि सप्रह पूरा करके प्रकाशित किया जाय । उन विद्वानों मे मेंरे मित्र परिहत उम्ापति द्विवेदी, उपनाम परिडत नक्झेद राम दुधे मी थे । उनकी यह्द सम्मति थी कि संप्रह एक निवन्ध के रूप में प्रकाशित किया जाय जिसमें धूषोपर को सम्बन्ध हो और जिसमे सनातनपर्म के जटिल प्रश्नो का विचार भी हो। याह्वह्क्य जी ने विद्या ओर धर्म के चौदद स्थान लिखे हैं-- पुराण न्याय मीमात्ता धर्म शात्राह्वू मिश्रिता। । वेदा; स्वानाति विधाना धर्मत्य च चरहुर्दश ॥ पंढित एमापति जी इन विद्या के निधि थे, विशेष कर दरशेन शाद्ष के वे बढ़े मारी विद्वान थे। मैंने पढित जी से निवेदन किया कि आप के समान दूसरा कौन विद्वान दे जिससे ऐसा प्रन्थ लिखने को कहा जाय-आप ख्य॑ इस कार्य को उठाइये। पढित जी ने म्न्य वा लिखना भ्रद्ञीकार किया और बहुंत परिश्रम से घहुमूल्य “सनातनघर्मोद्धार” नाम छा प्रन्य बता दिया । पढ़िद उम्रापति जी गा मे यद प्रन्य दिन्दूविश्वविययालय को दे दिया है. जिसके लिए हम उनके झृततज्ञ हैं प्रन्य बढ़ी प्रौद़ संस्कृत सापा में शिखा गया है और प्रन्यकार ने सम्पूर्ण प्रन्य का हिन्दी अनुवाद भी सरल भर खब्छ भाषा में कर दिया है जिससे केवल दिन्दी जानने बाज्षों को मी प्रन्य का अभिम्राय विदित दो लाय। पर्ठु प्रत्य के मद्॒त्व फो पूर्णरुप से वे ही गिद्वार पमझ् सऊते हैं जो थाशवल्वय जी फे ऊपर लिखे वचन के अनुसार विद्या झोर धर्म के चौदद स्थानों से परिचय रसवे हों। प्रन्य के दो भागा हैं, पूरोर् भौर उत्तरा् । और प्रस्येक भाग के दो दो सर हैं। पढिफे पूवोद्धे फो छुपे करें बर्ष हो गए। झनेद फारणों से प्रत्य के उत्तराद के छपयाने में पढुत विलम्य हुआ है, इसका मुमको सेद दै। किन्तु विश्ववाय जी के अनुप्रद से भय इस प्रन्य के तीसरे ओर यौये भाग भी छप गए हैं. और यद्द सम्पूर्ण प्रन्य विद्वानों के सामने शीघ्र पहुँच जादेगा। यह धन्य न फेवल




User Reviews

  • Ritwik dwivedi

    at 2020-09-20 18:10:32
    Rated : 10 out of 10 stars.
    This book is written by my grandfather 🙏...
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