रत्नकारण श्रावकाचार | Ratnkaran Shravkaachar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
70
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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धर्मोपदेश करनेकी प्रातिन्ना ।
देशयाभे समीचौन॑ धर्म कमंनिवईणम् |
संसारदुःखतः सतच्त्वान्यों धरत्युत्तमे खुखे ॥ १॥
अन्वयार्थौ--( या ) जो ( सत्त्वान् ) जाँवोंको (ससारदु-
खतः ) ससारके दुःखोसे छुटाकर ( उत्तमें सुखे ) उत्तम सुखमें
( धरेंति ) घारण करता है ( “तम्रः ) उस ( कर्मनिवहण )
कर्मोंक नाश करनेवाले ( समीचीन ) अति उत्कृष्ट ( धर्म )
धर्मको ( 'अह! ) में ( समन्तभद्वाचार््य ) ( देशयामे ) उपदेश
करता हूँ ॥ २॥
घर्मका लक्षण ।
सद्दृष्टिज्ञानहत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः |
यदीयप्रत्नीकाने भवन्ति भवपद्धातिः ॥ ३ ॥
अन्वयाथों--( धर्मेश्व॒राः ) धर्मके ईश्वर गणधरादि आचार्य
( सद्दृछिज्ञानहतताने ) सम्यस्दर्शन सम्प्ज्ञान और सम्यकूचा-
रित्रको ( धर्म ) धर्म (बिदुः ) कहते है (यदीयप्रत्यनाकानि )
जिनके ॥के उल्ठे मिध्यादशन मिथ्याज्ञान और मिध्याचारित्र
( भवपद्धतिः ) ससारकी परिपार्टीरूप ( भवन्ति) होते है ॥ ३ ॥
भावाथे--सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारििरूप रत्नत्रयकों धर्म
कहते हैं, और मिथ्यात्वकों ससारकी परिपा्टी अर्थात् अधर्म
कहते हैं ॥ ३॥
सम्यग्द्शनका लक्षण |
श्द्धानं परमाथोनामाप्तागमतपो भृताम् ।
जिमूटापोदमष्टाज्ञ सम्यर्द्शनमस्मयम् ॥ ४ ॥|
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