रत्नकारण श्रावकाचार | Ratnkaran Shravkaachar

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Ratnkaran Shravkaachar by पन्नलाल बाकलीवाल - Pannalal Bakaliwal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[२। धर्मोपदेश करनेकी प्रातिन्ना । देशयाभे समीचौन॑ धर्म कमंनिवईणम्‌ | संसारदुःखतः सतच्त्वान्यों धरत्युत्तमे खुखे ॥ १॥ अन्वयार्थौ--( या ) जो ( सत्त्वान्‌ ) जाँवोंको (ससारदु- खतः ) ससारके दुःखोसे छुटाकर ( उत्तमें सुखे ) उत्तम सुखमें ( धरेंति ) घारण करता है ( “तम्रः ) उस ( कर्मनिवहण ) कर्मोंक नाश करनेवाले ( समीचीन ) अति उत्कृष्ट ( धर्म ) धर्मको ( 'अह! ) में ( समन्तभद्वाचार््य ) ( देशयामे ) उपदेश करता हूँ ॥ २॥ घर्मका लक्षण । सद्दृष्टिज्ञानहत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः | यदीयप्रत्नीकाने भवन्ति भवपद्धातिः ॥ ३ ॥ अन्वयाथों--( धर्मेश्व॒राः ) धर्मके ईश्वर गणधरादि आचार्य ( सद्दृछिज्ञानहतताने ) सम्यस्दर्शन सम्प्ज्ञान और सम्यकूचा- रित्रको ( धर्म ) धर्म (बिदुः ) कहते है (यदीयप्रत्यनाकानि ) जिनके ॥के उल्ठे मिध्यादशन मिथ्याज्ञान और मिध्याचारित्र ( भवपद्धतिः ) ससारकी परिपार्टीरूप ( भवन्ति) होते है ॥ ३ ॥ भावाथे--सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारििरूप रत्नत्रयकों धर्म कहते हैं, और मिथ्यात्वकों ससारकी परिपा्टी अर्थात्‌ अधर्म कहते हैं ॥ ३॥ सम्यग्द्शनका लक्षण | श्द्धानं परमाथोनामाप्तागमतपो भृताम्‌ । जिमूटापोदमष्टाज्ञ सम्यर्द्शनमस्मयम् ॥ ४ ॥|




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