शंकर विजय | Shankar Vijay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शड़ए बेजय-साटक रे /्७ जा पक आ बे प्रभा०-हाँ ते। सव छुनाइये न; गिप्तके स्परण करता हुआ आनन्दसे दिन विवाऊ 1 क्‍ नीख०-भरे भाई | उस पंडिंतने बोद्धका वेष बनाकर उन्ही को पाठशाला में पुन पारमभ्भ क्रिया, उप्त शालामें प्रत्येक विद्यार्थोति वेदों के दूषण सगाकर लेख लिखानेकी रीति है,नव इस भटटपादसे कहागया तब इसने भी वेदों पर दक्षेष लगाकर लेव लिखा, उप्तका पढ़तेहुए में ब्राह्मण हाऋर केसा अनुचित कम कररहा हू ऐसा ध्यान होकर इसके नेत्र आँसू भर आे ऐसी दशा देखते ही यह बौद्ध नहीं ब्राह्मण हैं ऐसा जानते ही उन तीन बोद्धोंने भद्टादके टीले परसे नीचेके ढकेलदिया उस समय गिरते २ तिस ब्राह्मणने 'यदि वेद सचे हैं ते। मेरा वांस वाँका न हा! ऐप फहा और उसके चोट न लगी तथा भूमिपर खड़ा हेगया परन्तु इसमें उसका एक नेत्र जानारहा ! प्रभा०-अरे भाई जब उसने भपना सच भार वेदोंके ऊपर रकखा' तब उसऊा नेत्र क्‍यों गया नील०-उसने [ वेद यदि सच | | ऐसे सन्देह भरे शब्द उच्चांरण किये थे इसकारण उसप्क्ा येह दंड पिल्ला । प्रभा०-भाई उसके तिप्त नीच पाठशालामें पटना ही क्‍या पद था १। नील॒० -यद्यपि उसके हपारे सव शास्त्र थाते ही हैं परंतु खंडन ते बी दोंका करना था और उनके शास्त्रों का भेद कुछ भी मालूष नहीं था इस फारण उनकी पाठशांलामें पदनेके जानोपडा | प्रभा०-धन्य है धन्य है ऐसे सत्पुरंपके।, जेसा तुप कहरहे हे इप्तके घुननेसे ते! निःसन्देह अवत्तारी ही प्रतीत होता - है नहीं ते ऐसा साहस केसे करसकता था और ऐसा बेदका गौ व भी केप्ते रहता?हां यह ते कहे फिर आगे कपा हुआ मुझे सुनने




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