निर्मल आत्मा ही समयसार | Nirmal Aatma Hi Samayasar

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Nirmal Aatma Hi Samayasar by विद्यानन्द मुनि -Vidyanand Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र वस्तुत निर्मल आत्मा की प्राप्ति को ही सर्वोपरि ध्येय मानने वालो को इतर हेयद्रव्यों के समान गण, गचछ और सघ भी अन्तत त्याज्य हे । जहाँ निम्नेन्‍्थ अवस्था अशेष ग्रन्थिविमोककारिणी है वहाँ निर्मल आत्मद्रव्य के अतिरिक्त कौन स्वकीय है ? गण, गच्छो का भेद लेकर उन्ही के साथ अपना अभेदान्वय रखनेवाले आत्मा में , निर्मलता कैसे ला पायेगे ” क्योकि उनके आत्मा में तो गण, गच्छ, सघ और उनके नियमादि ओतप्रोत है । सम्भव है, आत्मा से भी अधिक गण-गच्छादि में व्यवहार करनेवाले परसमय-निष्ठो को लक्ष्य करते हुए ही आचार्य ने उक्त पारमार्थिक नवीन निश्चयात्मिका व्याख्या की हो तथा परसमयो पर भधघुर कटाक्ष किया हो । समय हो साम्रायिक भावसामायिक का निरूपण करते हुए मूलाचार मे प्रतिपादित किया गया है कि 'सम्यरदर्शन, ज्ञान, सयम और तपो से जीव के एकीभाव को समय कहते हे, इस ( इत्थलक्षण ) समय को ही सामायिक समझो-- 'समत्तगाणसजमतर्वोेहि ज ज॑ पस्सत्थससगमण । समय तु त तु भणिदतमेव सामाइअज जाणे ।|---७।२३ यह समय मे स्थित होना ही सामानिक है । जो प्रतिक्षण सम्यर- दर्शन, सम्यग्ज्ञान एव सयम-तपो से अपने साथ ऐग्य की प्रतीति करता है तथा परीपहो को जीतकर, दुर्लेश्या, दुर्ध्यन आदि से अवद्ध रहता हुआ आत्मध्यान मसन हैं, वह सामायिकवान है। वही दास्तविक मोक्षपथिक है। मोक्षार्थी का स्थितिकेन्द्र आत्मा, ध्येय आत्मा, अनभवनीय आत्मा तथा विहरणीय - विचरणीय भी आत्मा । इस आत्मा से भिन्न समस्त द्रव्य स्वपचवत्‌ अस्पृश्य । आत्मा राजा और आत्मा प्रजा । आत्मा ही राप्ट्र और आत्मा ही लोक । आत्मा ही पाचक और वही भोक्‍ता । आत्मा ही दृष्य और आत्मा ही दर्शक । ऐसा एकान्त प्रदेश जहाँ अन्यो का प्रवेश निषिद्ध ।




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