रनयसार | Ranaysaar

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Ranaysar by विद्यानन्द मुनि -Vidyanand Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अपर्सी हम की अनमृति गन्द में वणित नहीं की जा सकती । इसलिए पने गामान्यि गो ध्यान मं रनर अप्टपाहड আছি जिस ग्रन्थों की रचना ही गयी, उसमे स्थेणसार व्यवहारस्लगय का प्रतियादन करने बाला. ग्रन्थ 2 । अन्‍य रसनाओं की भाँति इसमें भी शुद्ध आत्मतत्व को लश््य में रखकर गृदरथ और मनि के संबसमसारित्र का निरुषण किया गया है । मुख्य रूप से यद आसारशास्त है। निम्नलिखित समानताओं के कारण यह आचार्य ঘন অটা रसना सिद्ध होती है।-- (१) संपटना की देष्दि से आचार्य कर्दऊुन्द की रचनाओं को दो वर्गों में विभाजित किया जा सफता है--सारमूलक रचनाएँ और पाहुड- मलकः । भक्ति और रतुतिविषयक रसनाएँ इनमें भिन्न हैं। प्रवसनसार, समयसार और र्नसार (रखमणसार) के अन्त में सार! शब्द का संयोग ही रसना-सादेश्य को सूचित करता है । (२) प्रवसनसार, नियसमसार, और रमशसार का प्रारम्भ तीर्थंकर महावीर के मंगलासरण से होता 61 “नियमसार' की भाँति रमणसार में भी ग्रन्य करा निर्देश किया गया है । मथा-- शमिऊण जिणं बीर॑ अणंतवरणाणदंसणनसहावं | वोड्छामि णिग्मसार॑ केबलिसुदकरेवलीभणिदं ॥१॥ तेबा-- शमिऊण बड़ढमार्ण परमण्याणं जि तिसुद्रेण । पोड्छामि रमगंगमारं मायारणयारधम्मीणं ॥1१॥॥ बात गाधाओं में शब्झसाम्य भी दष्टव्य है । समयमसार में भी वोस्छामि समसपाह्ाह उत्यादि সা ননা (३) इन सभी ग्रन्थों के अन्त में रनवा का पुन: नामोल्लेख किया गया है और सागार (गृहस्थ) जीर अनमर (मुन्ति) दोनों के लिए আমল फा सार बताया गया है | कहा है-- | রী बज्मदि सासणभेयं सागारणगारचरियया जुत्तों । . जो सो परवयणसारं लहुणा कालेण पष्पादिं ॥ प्र. सा. २७५ सम्मत्तणाणं . वेरग्गतवोभाव॑ णिरीहवित्तिचारितं । रयणसार, व गृणसीलसदहावं उप्पज्जदु रयशसारमिणं ॥ १५२ (४) इसके अतिरिकत रमणसार में दो-तीन स्थलों पर (गाथा १४८, ८४,१०५) 'प्रवचनसार' के अभ्यास का उत्लेख किया गया है, जो शुद्ध आत्मा रूप आगम के सार तत्त्व और प्रवचननसार ग्रन्थ का भी सूचक सकता द्वै ) पंचास्तिकाय में भी कहां गया है- एवं पवयणसारं पंचत्यि- संगहं वियाणित्ता ।' (१०३) (५) रथणसार में कहा गया हे-- णिच्छयववहा रसख्य जो গলা গা जाणड़ सो । ज॑ कीरइ त॑ मिच्छारूव सव्वं जिगुदि्ट्‌ठं 1 र. सा., १०९ समयसार में भी-- दंसगणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चे ताणि पुण লামা নিশিঘানি अप्पाणं चेव णिच्छयदों ॥| समससार, १६ आनार्य अमृतचन्द्र कहते हैं : 'येनेव हि भावेनात्मा साध्य: साधने ল स्यात्तेनेवार्य नित्यमुपास्यथ তনি स्वयमाकूय परेपपं व्यवहारेश साधुना दर्शनज्ञानचारिगत्राणि नित्यमुपरास्थानीति प्रतियागते 1 अर्थात्‌ साथ की १9




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