हिन्दी साहित्य रत्नाकर | Hindi Sahitya Ratnakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चन्द वरदाई छठ संग्रहीत हुआ लिखा है । कुछ विद्वान इसे प्रामाणिक भी मानते हैं झौर इसकी प्रामाशिकता में झनेक प्रमाण देते हैं । प्राम शिक स्यतने वालों में सर्वप्रथम पं० होदनलाल बिर्णुलाल पेंटुसा हैं। इन्होंने इतिहास श्रौर पृथ्वीराज रासो के अधिकांग संवतों में ६० वर्ष का श्रन्तर देखा श्रौर इस रासो के निम्नलिखित रूपकों के श्राघार पर श्रनन्द संवत्‌ की कल्पना की-- ः एकादस से पंचद् विक्रम जिमि श्रमसुस । त्रतिय्र साक इृथ्वीरान को लिख्यों विप्र शुनयुत्त ॥ एकादस से पंचदहद विक्रम सांक श्रसर्द । सिंह रिपु जयपुर हरन की मय प्रथिराज नरिदर ॥ इन दोनों की प्रथम पंक्तियों से यह अर्थ निकलता हे कि जिस प्रकार यूघिप्ठर के ११०० वर्ष पदचात्‌ विक्रम संवत्‌ प्रारम्भ हुमा उसी प्रकार विक्रम के १००० वर्ष परचातू श्रनन्द संवत्‌ प्रारम्भ हुआ । श्नन्द सघत्‌ पृथ्वीराज का संबत्‌ था । इसमें भ्रौर विक्रम संवत्‌ में €० वर्ष का अन्तर है। ९० वर्ष की कल्पना पंड्या जी ने श्नन्द शब्द के झाघार पर की । उन्होंने अ से दुन्य और नन्द से नौ झरथ ग्रहण कर श्रंक-विपर्यय द्वारा ६० शझर्थ निकाला । उनका कहना है कि चन्द के दिए हुए झ्रधिकांश संवतों में यदि ६० जोड़ दिए जाय तो वे इतिहास भ्ौर शिलालेखों से मिल जाते है । डाक्टर इयामसुन्दर दास श्रौर मिश्रबन्धु श्रादि विद्वानों ने इस कल्पना को माना । डॉ ० इ्यामसुन्दर दास ने इसकी प्र।माणिकता सिद्ध करने के लिए सन्‌ १९०१ ई० में हिन्दी का श्रादि कबि नाम का एक लेख नागरी प्रचा- रिगी पत्रिका में दिया था । इसमें उन्होंने उन नौ पटुटें-परवानों को झनू वाद सहित प्रकाशित कराया था जो उन्हें पं० मोहनलान विष्णुलाल पंडया से प्राप्त हुए थे । इन पट -परवानों का समय सं० ११३४५ से ११४५७ के वीच में है । रासो में वर्णित भ्रनेक घटनाएँ इनमें बशित घटनाओं से मिलती है । कई परवानों पर पृथ्वीराज की मोहर है जिससे प्रतीत होता है कि पृथ्यी राज संबत्‌ ११२२ में शिहासनारूढ़ हुए थे । यह संबत्‌ पृथ्वीराज संबत्‌ हैं भ्ौर चन्द के दिए हुए संवत्‌ से मिलता है । इन्होंने पंडया जी द्वारा कल्पित श्नन्द संवन्‌ को माना भर विक्रम संबत्‌ के ० बर्प परचात्‌ श्रनन्द संवत्‌ के प्रारम्भ किए जानें का समाधान इस प्रतिकिया के रूप में किया कि कन्नौज की गही पर बैठने वाले राठौर बंशीय राजाशओं नें जयचन्द तक £० बपष राज्य किया श्रौर जिस प्रकार चन्द्रगुप्त के लिए नन्द-गासन श्रप्निय था उसी प्रकार पृथ्वीराज के लिए जयचन्द श्रौर उसके पूर्वजों का राज्य श्रप्रिय था श्रत उनके दासन- काल को छोड़कर चन्द ने भ्रनन्द संवत्‌ का व्यवहार किया ।




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