अगस्त - क्रान्ति | Agast - Kranti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लेखक परिचय बलदेव बाबूको मैंने पहली बार तरबारामें देखा था। तरवारा द्रभंगा जिलेका एक गांव है। लददेरियासरायसे लगमंग ३० मील दूर । वहां बिहार विद्यापाठकी शाखां है। शायद्‌ थी? कहना अधिक ठीक होगा। इस गांवके आसपास गरीब किसानों और पिछड़ी हुई जातियोंकी बस्ती है। जमीन बहुत उपज्ञाऊ है परन्तु जितनी उपजकी उससे आशाकी जा सकती द्दे उतनी उपज होती नहीं । हमलोगॉने रास्तेमें जली ऊखके खेत देखे थे जो किसानोंकी परवशताके ज्वलन्तः उदाहरण थे। तरवाराके आसपास मुसद्रर नामक पिछड़ी हुईं जातियोंकी बस्ती है। इनलोगोंकी दारुण दीनता कद्दकर नहीं समभाई जा सकती । इसी गरीबीके गढ़में बछदेव बाबूक दशेन हुए। विज्ञापनकी दुनियासे इस गांवका दूरका भी संबंध नहीं दै। इस दुःख दरिद्वताके वातावरणमें बलदेव बाबूकी सौम्य-मनोहर मूर्ति दिखी। ऐसा जान पड़ा कि इस निणशा ओर पस्त हिम्मतीके खंडहरके द्रारोंको भेदूकर एक मनोहर पुष्प खिला है जो अपनी सौम्य कान्तिसे घोषणा कर रहा है कि जीवनीशक्ति अब भी बाकी है। आशाका कण खो नहीं गआ दे । े इतना बिनयी स्वभाव और इतनी तोदूण दृष्टिशक्ति एक ही स्थानपर कम देखनेकी मिलती है। बलदेव बाबू गरीबोका सामयिक उपचार करनेवाले जन- सेवक नहीं हैं। उन्होंने मनुष्यकों उसके समृची ऐतिहासिक विकास परम्पराके भीतरसे देखनेंकी दृष्टि पाई है। मुसहरोंका उन्होंने गहरा अध्ययन किया है। वे जानते हैं कि मनुष्यके पीछे जो हजारों वर्षका इतिहास है. वह व्यक्ति/ के ओऔद्धत्यका प्रतिवाद है और साथ ही निर्विशेष मनुष्य” की दु्देस विजय-यात्राका प्रमाण है। इसीलिये उनके स्वभावमें विनय है, हृदयमें आशा है. ओर सामयिक दुःखसे अभिभत न दोनेकी शक्ति है। मैं उन्हें जितना ही अधिक देखता. ओर पहचानता गया हूँ उतना दी अधिक प्रभावित दोता गया हूँ। चरित्रवल्लकी उत्तम कसोटी भी शायद यहदी दे ।




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