अधिकार का प्रश्न | Adhikar Ka Prashn
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
160
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand): १६:
समय कोई न होगा ?”
“दह्ा, आप क्या कह रहे हैं ?''
“मैं बिलकुल ठोक कह रहा हूँ सुरेन्द्र !”
“द्दा, कत्तेव्य भी तो कोई बस्तु होती है ।”
“होती है, मगर अधिकार के बराबर नहीं। पहले जब हम अधिकार प्राप्त
कर लेते हैं तब कहीं कत्त व्य की सत्ता का उद्भव होता है ।”
दूध का गिलास खाली करके सुरेन्द्र को लौटाते हुए उपेन्द्र ने प्रन्त में कह
दिया--मैं तो अभी पढ़ गा, लेकिन तुम भ्ब चुपचाप जाकर लेट रहो और
सो जाओ । इस समय ग्यारह बजे हैं। हो सके तो चार बजे, नहीं तो पाँच
बजे उठकर पढ़ने में लग जाना । समझे ? जा्रो |”
सुरेन्द्र चुपचाप लौट गया और उपेद्ध इधर-उधर से ध्यान हटाकर अपनी
एक पाठ्य-पुस्तक आलमारी से निकाल कर ग्रध्ययन में लीन हो गया । .
वह अभी दस पंक्तियाँ भी नहीं पढ़ पाया था कि इतने में कुन्दनबाबू ने
ग्राकर कहा--“अरे उपेन्द्र !”
“आइये, जीजाजी, कहिए । आप लोगों की रमी हो गई ?”
“हाँ, हो गई 1”
“४ कैसा फलाफल रहा ?”
“एक रुपया सात आने की हार में मैं रहा, दो रुपये तेरह आने की हार में
रहे मौसा जी और तीन रुपये सबा चार आने की हार में फूफाजी ।”
“तब तो मामाजी ने श्राप लोगों के कई रुपये मार दिये। उन्होंने यह
नहीं सोचा कि मान्य लोगों का पैसा उतको लेना भी चाहिये या नहीं !”
“देखो उपेन्द्र, खेल में पैसे मार देने का कोई प्रश्न नहीं उठता । भ्रगर उठता
होता तो फिर रमी के खेल में पड़ने की झ्रावश्यकता ही नहीं होती । जहाँ
बौद्धिक प्रयोगों के प्रशिक्षण होते हैं, बहाँ छोटा-बड़ा, मान्य-अभ्रमान्य का प्रश्न
नहीं उठता ; क्योंकि ग्रधिकार के बिना जीवन का अस्तित्व ही स्थिर नहीं होता।
“क्या कहा ? बौद्धिक प्रयोगों के ग्रधिकार का प्रइन २”
शहाँ [”
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