संस्कृत कवियों की अनोखी सूझ | Sanskrit Kaviyon Ki Anokhi Sujh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
241
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[२१
गेहूँ मे छेदयन्ति प्रतिदिवसमुमाकान्तपूजानिमित्त
तस्मात्खिन्ना सदा5हूं द्विजकुलसदन नाथ नित्य त्यजामि ॥
भावार्थ :-विप्खु ने लक्ष्मी से पूछा कि तुम ब्राह्मणों से
क्यों घृणा करती हो ? उनके पास क्यो नही जातो ? इस पर
लक्ष्मी उत्तर देती हैं--''हे ताथ | अगस्त्य नाम वा एक प्राह्मरा
हुआ है. जिसने मेरे पिता समुद्र को ही उठाकर पी लिया था।
एक दूसरा ब्राह्मण भेगु नाम का हुआ है, जिसने मेरे प्राए-प्ति
विष्णु भगवात् वो ही लात मार दी थी। बहुत छोटी उम्र से ही
ब्राह्मण लोग मेरी वैरिणी सरस्वती वी उपासना बरते है और
सबंदा उसे प्रपने मुख में घारणा किए रहते है। बमल मे मेरा
निवास रहता है, उसो कों वे लोग श्रतिदिन उमावान्त (शिव)
थी पूजा वे! निमित्त तोडा करते है। इन्ही सब बातो से सिसन
होपर मैं ब्राह्मणों वे यहाँ रहते वा नाम भी नही लेती । उन
को दूर से ही नमस्कार परती है ।”
इ२
वदष्मे मूढजने ददासि द्रविण चिहत्सु कि मत्सरो
नाहूं मत्सरिसी न चापि चपला नैवास्मि सूर्सरता
सूर्सेस्यों द्वविर्ण ददामि नितरां तत्कारखं शूयता
घिद्दास्सदजनेपु प्रृणिततनुम् सेस्प नान्या गति ॥
भावार्थ “--लड्मी विदानों वे पास बयों नहीं जाती-इस
दर रियी शिसी कवि वी झनोसो सूक है-- ' हे ल$ मी, तुम सू्सों
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