सत्यार्थ प्रकाश चतुर्दश समुल्लास में उद्घृत | Satyarth Prakash Chaturdash Samullas Me Udghrit

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Book Image : सत्यार्थ प्रकाश चतुर्दश समुल्लास में उद्घृत  - Satyarth Prakash Chaturdash Samullas Me Udghrit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( सत्र) “पस डरो उस आग से जो इंधन उसका आदमी हैं ओर पत्थर तय्यार की गई है वास्ते काफिरों के ।” कुर्मान्‌ को आयत के अनुसार शाह साहब के तजुमें का यह मतलब है:-- “पस उस्च आग से डरो जिसका इंधन मनुष्य ओर पत्थर हैं, और जो (आग) काफ़िरों के लिए तय्यार की गई है ।” वास्तव में इस भूल का कारण शाह साहब के अनुवाद का प्रकार ही हे। अकस्मात शाह साहब ने “हैं” क्रिया को “आदमी” के पीछे लिख दिया शोर “पत्थर” के पीछे विराम((/७1111118) नहीं दिया। आय्य भाषा में अनुवाद करने वाल ने सामान्य बुद्धि का प्रयोग करके “हैं” के पीछे विराम समझ लिया श्रोर “पत्थर” को गे वाले टुकड़े से जोड़ दिया और “गई” को “गए पढ़ लिया। इस प्रकार अनथक से वाक्य को साथक बना दिया । यहां क़र्मान्‌ के कर्ता का मतलब “मनुष्य” से मूत्तिपूजक और “पत्थर” से मूत्तियां हे! । मूर्तिपूजक चेतन होने से आग में डाले जासकते हैं और इंधन की नाई जलसकते हैं परंतु पत्थर की मूर्तियां जड़ होने से आग का इंधन नहीं | सकती और न उनको कोई दुःख हो सकता है। इस लिए था० भाषानुवादक ने संभवाथ के आधार पर विराम की कल्पना की--है” के पश्चान विराम लगाया और “पत्थर” को आगे वाले वाक्य से जोड़ दिया और बेमुहावर। उदृ तजेमे को बामुहाबरा आ० भाषा में लिख दिया जेसाकि १४ वे समुल्लास में इस समय छुपा हुआ है श्रोर जो ऊपर उद्धत किया जा चुका, है । इस में श्री स्वामी जी की भूल तो क्या अनुवादक की भूल भी नहीं कह सकते जिसने अर्बी न जानने की अवस्था में, बिना किसी अशुद्ध भावना के, केबल बुद्धि के आधार पर शाह साहब के अनुवाद को साथ्थंक बना कर आ० भाषा का रूप दे दिया। * खण्ड सं० ६ में “ख़ालिदुन” शब्द के अथ में लिड़ का भेद हुआ है । इसका अथ “सदेव रहने वाले” हैं और “सदैव रहने वाली” नहीं है यह शब्द पुल्निज्ञ है । इस भूल का कारण भी शाह साहब का तजुमा ही है जो इस प्रकार हैः-- “वास्ते उनके बीच उनके बीबियां हैं पाक की हुई--ओर बीच उनके हमेशा रद्दने वाले ” श्री न जानने वाला यदि उपयेक्त वाक्य का आ० भापानुवाद करे तो वह अर्थ की साथकता “वाली” में समभेगा, “वाले” में नहीं. क्‍यों कि उर्दू. भाषा में “ये” तहतानी (छोटी) त्र फ़ेकानी (बड़ी) को एक दूसरे के स्थान पर लिख, पढ़ देने का आम रिवाज है । खण्ड सं: २५--इस आयत का तजुमा शाह साहब ने यह किया है; -- “४ दोस्त रखते हैं बहुत अहले किताब में से काश कि फेर देवे तुमको पीछे ईमान तुम्हारे के काफ़िर हसद्‌ स” उपयु क्त तजु मे का मतलब कुछ भी समभ में नहीं आता | कोई अर्थी जानने बाला भी जब तक कुर्शान की मुल आयत को न देखे तब तक सत्याथ जान ही नहीं सकता आ० भाषानुवादक ने तो इसको कुछ मतलब वाली भी बना दिया है




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