प्रेमघन सर्वस्व प्रथम भाग | Premghan Sarvsav Bhag 1

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Book Image : प्रेमघन सर्वस्व प्रथम भाग  - Premghan Sarvsav Bhag 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जीणजनपद अथवा ट॒र्दशा दत्तापुर' अ्रीपति कृपा प्रभाव, खुखी बहु दिवस निरन्तर | निरत विविध व्यापार, होय गुरु काज़नि तत्पर ॥१॥ बहु नगरनि घन, जन कृत्रिम सोभा, परिपूरित । बहू ग्रामनि सुख समृद्धि जहाँ निवसति नित ॥२॥ र्यस्थल बहु युक्त लदे फल फूलन सो बन । ताल नदी नारे जित सोहत, अति मोद्दत मन ॥३॥| शल अनक श्टंग कन्दरा दरी खोहइन मय । सर्जित सुडौल परे पाहन चट्टान पसमुच्चयय ॥७॥ बद्दत नदी दृहरात जहाँ, नारे कल्रव करि। निदरत जिनहि नीरभर शीतल स्वच्छ नीर करि ॥५॥ सघन लता द्रम सों अधित्यकाँ] जिनकी सोद्दत । क्रिलकारत बानर लंगूर जित, नित मन मोहत ॥6।॥ # यह आराम प्रेमघन जी के पूर्वजों का निवासस्थान था और प्रेमथन भी भी इसी आम में १६१२ बैक्रमीय में उस्पन्न हुए थे। इस ग्राम की प्राचीन विभूति तथा आधुनिक दुशा का इसमें यथार्थ चित्रण है । _ पर्बत का ऊपरी भाग वा भूमि |




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