उत्तराध्ययनसूत्रम् | Uttaradhyyansutram

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चतुदेशाध्ययनम्‌ ] हिन्दीभाषारीकासहितम्‌ | [ ४६१ : पुरोहिय॑त॑ कमसो5णुणन्तं, निमंतयन्त॑ च सुए धणेणं। जहक्ुम॑ कामगुणेहिं. चेव, कुमारगा ते पसमिक्ख वक्क ॥११॥ पुरोहित त॑ क्रमशो5नुनयन्तं, निमन्त्रयन्त॑ च सुतो धनेन। यथाक्रमं कामगुणेश्रेव, कुमारकी तो प्रसमीक्ष्य वाक्यम्‌ ॥११॥ पदाधोन्वयः--सोयग्गिणा-शोकाप्ति से तथा आयगमुर्णिधणेणं-आत्म- गुणेन्धन से मोहाशिला-मोह रूप वायु से पत्जढशाहिएणुं-अति प्रचंड से' संतत्त- भाव॑-सन्तप्त साव परितृप्प्साएं-सवे अ्रकार से सन्तप्त हृदय लारृप्प्माणं- वार २ विछाप करता हुआ बहुहा-बहुत प्रकार से चु-और बहुँ-अतीव । तं-उस पुरोहियं-पुरोहित को जो कमसोउणुसंतं-क्रम से अुनय करता हुआ चु-और निम्म॑ंत्यतं-निमंत्रण करता हुआ सुए-पुत्रों को धणेणं- धन से जहक़मं-यथाक्रम कामगुणेहिं-कामगुणों से निमंत्रण करता हुआ ते-वे दोनों कुमारगा-कुमार पूसमिक्ख-देखकर--विचार कर बक्क-वाक्य-चचन बोले । मूछाथे--शोक रूप अग्नि, आत्मगुण रूप इन्धन और अति प्रचेड मोह रूप वायु से सन्‍्ताप और परिताप को प्राप्त हुए तथा बहुत प्रकार से घहुत सा आलाप-संलाप करते हुए, उस पुरोहित को देखकर वे दोनों कुमार उसके प्रति इस प्रकार बोले, जो कि उन कुमारों को, धन और विषय भोगों से निमंत्रण करता हुआ उनका अनुनय कर रहा था अथात्‌ उनके प्रति अपना अशेप्नाय प्रकट कर रहा था ( युग्मव्याख्या ) | बा टीका--इस गाथा सें उपसारुंकार दिखाया गया है. | और ११वीं था के साथ सिछृकर इसका अथे होता है । श्रगु पुरोहित शोकरूप अग्नि




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