पर्यावरण की संस्कृति | Paryavaran Ki Sanskriti

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Paryavaran Ki Sanskriti by शुभू पटवा - Shubhu Patava

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भारत की यह सनातन परम्परा रही है कि नदी, जल, भूमि, पहाड़, पशु-पक्षी, जगल, पेड, वनस्पति का स्वामी कभी राज्य सत्ता नही रही । इनका उपयोगकर्ता या उपभोक्ता ही इसकी रक्षा और संवर्द्धध का जिम्मेवार रहा है । यह सब प्रकृति के दिये हुए उपहार माने जाते रहे हैं । इन पर किसी एक का स्वामित्व अथवा व्यापार का अधिकार भारतीय परम्परा में पाप माना जाता रह है । ये प्रकृति के दिये उपहार हैं जो जीवनाघार माने जाते रहे है। जब तक यह परम्परा रही तब तक थ्री-समृद्धि और आनन्द भी सभी ओर रहा । राजस्थान का पश्चिमी क्षैत्र प्राकृतिक विकठता का एक नमूना है। यह थार का मरुस्थल कहलाता है। यहा प्रकृति के उपहार के बतौर बिपुल मात्रा में पशुधन मिला । गौधन के कारण यह क्षेत्र घी-दूध का सरस क्षेत्र माना जाता रहा है । पांचवें-छठे दशक तक गौपालक न अपने धन (पशुधन ही को यहां घन को संज्ञा है) को बेचते थे और न दूध-छाछ को । प्रकृति की दुरूहृता के बावजूद भारतीय परम्परा की अमिट छाप यहां इस रूप में आजादी के बाद तक देखते को मिलती रही है। यहां 'दूध बेचना और 'पूत बेचना एक बराबर माना जाता रहा है । पूत बेचने का मतलूब अपनी सन्तान का सौदा करने से है। लेकिन अब यह परम्परा लगभग अदृश्य हो गई है। अव तो 'डेयरी परियोजता' के आने से दूध बेचने की होड़ इस कदर छग गई है कि गौपालक अपने ही घर के नन्हे शिशु के लिए भी बमुश्किल दूध रखते हैं । भारतीय समाज की ये परम्पराएं धीरे-धीरे टूटनी तो ब्रिटिश काछू से ही शुरू हो गई थी । ब्रिटिश हुकूमत की कुटिल चालो ने हमारी परम्पराओ को ध्वस्त करना इसलिए जरूरी समझा कि इनके रहते लृट-खसोद के उनके इरादे पूरे नही हो सकते थे। महात्मा गांधी की अंग्रेजों के बारे मे यह स्पष्ट राय थी कि वे चालबवाजी करके हमे रिक्षाते हैं और रिझाकर हम से काम लेते है। एक तरफ भारतीय जन का इस तरह शोपण होता था और दूसरी तरफ भारत को सम्पदा के विनाश का सुनियोणित पड्यंत्र निमित होता था । ब्रिटिश हुकूमत ने अपने हितन्‍स्वाथ के लिए जो पड़यंत्र खड़ा किया था, आजादी के बाद भी उस जुरे को उत्तार फेंकने का सामर्थ्य हम हासिल नहीं कर पाये । शिक्षा पद्धति से लेकर अपनी प्राकृतिक प्म्पदा तक के नी ति-नियमों में हम यह झलक देख सकते हैं ! शिक्षा पद्धति की उपादेयता का नमूना तो इतने में ही हम देख सकते है कि जो नौकरशाही इस शिक्षा पद्धति में से निकली वह भारतीय जन के प्रति किस हृद तक उत्तरदायी नजर आ रही है । भारतीय समाज के प्रति वर्तमान नौकरशाही पर्यावरण की संस्कृति 25




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