जैन शिला लेख संग्रह भाग 4 | Jain Shila Lekh Sangrah भाग 4

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Jain Shila Lekh Sangrah भाग 4  by विद्याधर जोहरापुरकर- Vidyadhar Joharapurkar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अस्ताचना 1७५ (ड) साधुर सघ--इसका उल्लेस सन्‌ ११७० के एक छेखमें (क्र० २६५) है । इस संघके महामुनि गुणभद्ग -टारा इस छेखकी रचना को गयी थी रा छेसमें छोलक श्रेप्ठो-द्वारा पास्वनाथमन्दिरके निर्माणका बर्णन है । (ऊ) परचस्तूप निकाय--अ्रस्तुत सग्रहके एक लेख (क्र० १९ ) में काशीके पचस्तुप निकायके आचार्य गुहनन्दिका वर्णन हैं। इनके शिष्योके लिए वटगोहालो ग्राममें एक विहार था जिसे ब्राह्मण नाथशर्माने सन्‌ ४७९ में कुछ दान दिया था ।* (क्र) जम्बूख॒ण्द्गण--इसका उल्लेग छठी-सातवी सदीके एक छेखमें ( क्र० २२ ) हुआ हैं। इसके आचार्य आर्यणन्दिको सेन्द्रक राजा इन्द्रणन्दने कुछ दान दिया था । (कर) विहवूर गण---इसका एक छेसत (क्र० ५६ ) मिला है । इसमे सन्‌ ८६० में सन्नाद्‌ अमोधवर्प-ढारा इस गणके नागनन्दि आचार्यकों कुछ दान दिये जानेका वर्णन है ।* (छू) जैन सघऊे विपयमें साधारण विचार--अब तक जैन मुनियोके विभिन्न नधोका जो परिचप्र दिवा गया हूँ उससे स्पष्ट है कि इनमे व्यवहार- १. साथुर सघ चादम व्यप्ठासघका पुक गच्छ बन गया था। इसका चिस्तृत चच्तान्त हमने 'मद्दारक सम्प्रदाय! में दिया हैं । २ धघवकादीकाके कर्ता धीरसेन आचाये पचस्तूप अन्चयके हो थे (घवला- प्रशस्ति) । किन्तु उनके प्रशिष्य गुणमद्द उन्हे सेनान्वयका कहते है। हो सकता हैं कि पंचस्तूपान्वयकों ही थादमे सेनान्वय नाम प्राप्त हुआ दो । किन्तु सेनानवय सन्‌ ७८० के रूगमग अस्तित्वमें झा चुका था यह पहले स्पष्ट कर छुके हैं । ३. जम्बूसण्ड गण तथा सिंहचूर गणका चणन पहले संग्रहमें नही है ।




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