जैनेन्द्र की कहानियाँ | Jainandra Ki Kahaniya
श्रेणी : कहानियाँ / Stories
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
754.23 MB
कुल पष्ठ :
234
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)क्
परदेसी €
बात कह दी है । चर तुम देख लो कि में भली नहीं हूँ । कुमार फिर
मुमे नहीं मिला । न जाने वह कहाँ है । बटोही, मुझे अकेलापन
अच्छा नहीं लगता है । देखो परदेसी, तुम्हें वस्ती के लोग यहाँ
आने के कारण भला नहीं कहेंगे। मुझे वे बहुत खोटी-खोटी वातें
कहते हैं । पर मैं नहीं चाहती कि तुम्हें भी कोई खोटी वात कहे ।
तुम परदेसी हो । तुम्हें लोगों की खोटी बात की परवाह न हो तो,
परदेसी, तुम कुछ रोज़ यहाँ रहकर चले जाना । मेरा जी लग
जायगा । यहाँ कौन कब '्ाता है ?”
पुरुष, “में सममा--”
महिला, “तुम क्या समझे परदेसी, और तुम चुप क्यों होगये !”
पुरुप, “कुछ नहीं ।... देखो, में प्रवासी हूँ । मुझको खरा-सरोटा
नहीं छूता । म॑ यहाँ कुछ रोज़ रहूँगा ।”
महिला, “परदेसी, तुम किस देश के वासी हो ? तुम्हें खरा-
खोटा नहीं छूता ?””
पुरुप, “मैं अनेक देश-देशान्तसों में घूमा हूँ । पर यह तुम लोगों
का देश न्यारा है। और सब जगह तो ऐसे खरे-खोटे की वात नहीं
है। भद्रे, क्या तुमको पका मालूम है कि तुम खोटी हो ?
महिला, “हाँ, मैं ऐसा ही जानती हूँ। नहीं तो लोग मुभे क्यों
दुरदुराते !””
पुरुप, “एक और लोक भी दे । इस तुम्दारे लोक से वद्द अगला
दे। वहाँ सब उलट जाता दै । जो यहाँ दुरदुराया जाता है, वर्द
उसका आाद्र होता है । यहाँ का दुखी वहाँ सुख पाता है । तुम उस
लोक के वारे में कुछ नहीं जान ीं !””
मदिला, “क्या परलोक ?””
पुरुष, “हाँ, परलोक ।””
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