जैनेन्द्र की कहानियाँ | Jainandra Ki Kahaniya

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Jainandra Ki Kahaniya by जैनेन्द्र कुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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क् परदेसी € बात कह दी है । चर तुम देख लो कि में भली नहीं हूँ । कुमार फिर मुमे नहीं मिला । न जाने वह कहाँ है । बटोही, मुझे अकेलापन अच्छा नहीं लगता है । देखो परदेसी, तुम्हें वस्ती के लोग यहाँ आने के कारण भला नहीं कहेंगे। मुझे वे बहुत खोटी-खोटी वातें कहते हैं । पर मैं नहीं चाहती कि तुम्हें भी कोई खोटी वात कहे । तुम परदेसी हो । तुम्हें लोगों की खोटी बात की परवाह न हो तो, परदेसी, तुम कुछ रोज़ यहाँ रहकर चले जाना । मेरा जी लग जायगा । यहाँ कौन कब '्ाता है ?” पुरुष, “में सममा--” महिला, “तुम क्या समझे परदेसी, और तुम चुप क्यों होगये !” पुरुप, “कुछ नहीं ।... देखो, में प्रवासी हूँ । मुझको खरा-सरोटा नहीं छूता । म॑ यहाँ कुछ रोज़ रहूँगा ।” महिला, “परदेसी, तुम किस देश के वासी हो ? तुम्हें खरा- खोटा नहीं छूता ?”” पुरुप, “मैं अनेक देश-देशान्तसों में घूमा हूँ । पर यह तुम लोगों का देश न्यारा है। और सब जगह तो ऐसे खरे-खोटे की वात नहीं है। भद्रे, क्या तुमको पका मालूम है कि तुम खोटी हो ? महिला, “हाँ, मैं ऐसा ही जानती हूँ। नहीं तो लोग मुभे क्यों दुरदुराते !”” पुरुप, “एक और लोक भी दे । इस तुम्दारे लोक से वद्द अगला दे। वहाँ सब उलट जाता दै । जो यहाँ दुरदुराया जाता है, वर्द उसका आाद्र होता है । यहाँ का दुखी वहाँ सुख पाता है । तुम उस लोक के वारे में कुछ नहीं जान ीं !”” मदिला, “क्या परलोक ?”” पुरुष, “हाँ, परलोक ।””




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