ब्रजभाषा सूर - कोश खंड 1 | Brajbhaasha Soor Kosh Khand 1

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डॉ. दीनदयालु गुप्त - Dr. Deenadayalu Gupta

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प्रेमनारायण टंडन - Premnarayan tandan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ब्वरिच्छ संज्ञा पु. [सं- भ्रंतरिक्ष] १) आकाश झघर । उ.--जोजन बिस्तार सिला पवनसुत उपाटी । फिकर करि बान लच्छ अझंतरिच्छ काटी &-£६। (र घर ओठ । उ.-(क) भ्रंतरिच्छ श्री बंधु ठेत हरि त्यों हो श्राप श्रापनी घाती--सा. ५० । (ख) अ्ंतरिलछ में परो विबफल सहज सुभाव मिलावों-सा. उ. १०३ ॥ शुतरिच्छन--संज्रा पं. बहु. सं. झ्ंंतरिक्ष | दोनों श्रघर झोठ । उ.--श्रपरिच्छन सिधु-सुत से कहत का प्रनुमान--सा ७८ ॥ झँंतरिछ--संज्ञा पं. [ सं श्रंतरिक्ष | ओठ अघर । उ (क) लगे फरकन झ्ंतरिछ भ्रनूप नीतन रंग-सा ७४ | (ख) हरि को भ्रंतरिछ जब देखी । दिग्गज सहित अनूप राधिका उर तब धीरज लेखी-ससा परे ब्तरित--सं.] (१) छिपा हुआ गुप्त । (२) ढका हुआ । ध्ंत्तरीक--संज्ञा पूं [. सं. भ्रंतरिक्ष ] श्राकाश । तरोटा-संज्ञा पं. [ सं० भ्रंतरपट ] महीन साड़ी के नीचे पहनने का. वस्त्र जिससे शरीर दिखाई न दे । उ.--उचोली चतुरानन ठग्यौ श्रमर उपरना राते (हो )। झँतरौटा श्रवलोकि कै भझसुर महा मदमाते (हो) । तिगंत्त-चि. [ सं० ] (५) भीतर छिपा हुआ शुप्त । (२) हृदय के हार्दिक । संज्ञा पूं--सन हृदय चित्त। उ.--(क) रुकम रिसाई पिता सौं कह्मौ । सुनि ताकौ श्रंतगंत दह्मौ- १०उ.-3 (व) बारंबार सती जब कह्मौ । तब सिव भ्रंतगंत यौं लह्लौए-४-श। तगति--संज्ञा स्त्री. [ सं. ] (१) चितवृत्ति मनसे्कासना _ मावना । (२) हृदय सें । उ.-करि समाधि श्रन्तगंति ध्यावहु यह उनको उपदेस--२६८८ । तिंट्टि संज्ञा स्त्री [ सं. ] (१) ज्ञानचत्त प्रज्ञा । (२) श्रात्मचितन । बतिघान--तंजा पु० [सं० भ्रत्तद्धीन] -लोप तिरोधान । नि०--शुत श्रदश्य अंतहिंत । उ .--के हरि जू भए अन्तर्धान--१-२८६ | बंतथेना -वि. [ सं. झंतर्द्धान ] गुप्त अहश्य अंतर्हित । उ.-ाराधा प्यारी सज्ज लिंए भए अन्तर्धाना-- १७९३९ । ं ः ब्परंतर्घोधि-सज्ञा पं. [ सं ] (१) झात्मज्ञान। (२) आंतरिक शनुभव । चतयोमी-घबवि. [सिं.] हृदय की बात जानने वाला । उ.-सुरदास प्रभु भ्रतर्यामी भक्त संदेह हरयौ-- रप्रभूर | ब्ंतरहित--वि. | सं. ] अंतद्धान झाइश्य लुघ । श्रतावरी अअंतावली--सज्ञा स्त्री [ हिं. अत+-स भ्रावलि ] आते अतड़ी-समूह । ंतःकरण--संज्ञा पु [ सं. ] (१) हृदय सन चित्त बुद्धि । (२) नेतिक बुद्धि विवेक । ब्ंत पुर--संज्ञा पं. [ सं ] महल का मध्यभाग जहाँ रानियाँ रहती हैं रनिवास । उ.-नुप सुनि मन शझ्रानन्द बढ़ायौ । भ्रन्तःपुर में जाइ सुनायौजा ४-€ । ब्परदरसे संज्ञा प॑ बहु [| फा श्रंदर + सं. रस 1 एक मिठाई जो चौरेठे या पिसे हुए चावल की बनती है । उ. सुंदर भ्रति सरस अझ्ंदरसे । ते घृत दधि-मधु मिलि सरसे--9०- १८३ । अंदेस अदेस--संज्ञा. पं. [ फा. श्रंदेशा ] (१ सोच चिता फिक्र । उ.--इन पै दीरघ धनुष चढ़े क्यों सखि यह संसय मोर । सिय- श्रंदेस जानि सूरज-प्रभु लियो करज की कोर-€-२३। (२) भय डर श्राशंका । उ.-- (क) सूर निगुन ब्रह्हा धरि के तजहु सकल श्रंदेस--१९७४ - (ख) छिंन बिनु प्रान रहत नहि हरि बिन निसदिन अधिक श्रंदेस--१७५३ । (३) संशय अनुमान। (४) हानि। (श) दुविधा असमंजस । अंदेसो--संज्ञा पु. [ फा. भ्रंदेशा ] (१ ) लचिंता सोच । उ समे पाइ सम्‌भाइ स्याम सों हम जिय बहुत श्रंदेसो-- ३४३१ । (२) हानि दुख । उ.--रवि के उदय मिलन चकई को ससि के समय श्रंदेसों. ..--३३६१ । (३) श्राशंका भय डर । उ.-- भली स्याम कुस- लात सुनाई सुनतहि भयौ भ्रंदेसो -- ३१६३ । ऋंदोर--संज्ञा पु ० [ सं श्रंदोलन-मूलना हलचल 1 दलचल हत्ला कोलाइल । उ.--भहरात भहरात




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