काव्यानुशीलन | Kavyanushilan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फच्ाकार की प्रेरणा !१्७छ । पड़ती है। विश्व का निरीक्षण किसी जगह से आरन्प कीजिए, अन्त- नेगत्वा आत्मा के ऊपर ही पर्येवसान होगा । प्रिय वस्तुओं की गणना + आत्मा ही श्रेष्ट हहरता है । आत्मा विशाल विश्ववृत्त का केन्द्र- स्थानीय है । विश्व की परिधि के किसी विन्दु से गणना आरस्म कौजिए केन्द्र को स्पश करते ही जाना पड़ता है। प्रियतम्‌ होने के द्देतु द्दी पुत्नव॒त्सला समतासयी माता की भांति श्रुति मानवों को उपदेश देती है - आत्मा बाडरे द्रप्ठध्यः । आत्मा का साक्षात्कार करो । अये दुःखपीडित प्राणी, यद्वि तुझे कलेश की असहनीय बेंदना से अपनी रक्षा करनी है, आवागमन के पचड़े से अपने को बचाना अभीष्ट है, तो इस शअेछ- आत्मा का दशेन करो, मन्‍्थन करो तथा निदिध्यासन करो। भारतीय: आध्यात्मिक चिन्तना का यही परिगलित फल है -आत्मानं विजानीहि- आर यूसान के मान्य महापुरुप का चही आदर्श वाक्य हे--नो दाई- सेल्फ । आत्मा की यही साक्षादनुभूति कलात्मक चिन्तना तथा रसात्मक रखना का मूल स्रोत है । ५ पु मेबदून का रहस्थ मद्दाऊदि कालिदास के मेघदूत काज्य का आध्यात्मिक रहस्थ इस विपद को कितनी मनाज्ञता से झलका रहा है । आ्यनन्द्रमय लोक में यह्‌ जीव कितने सुख के साथ अपना जीवन विताता है । नित्य बन्दावन में रसिकृशिरेमणि भगवान्‌ के साथ लीला रस में लीन यह जीच तन्‍्मयता का अलुभव करता हुआ आसत्मविभोर रहता है ) अनन्त रास के मधुर रस का आस्वादन कर वह अपने को कऋृतार्थ सममता है। परन्तु विषम कर्म को विपमय परिणति ऐसी होती है कि बह उस आनन्द धाम से बहिष्क्ृत किया जाता है । भगवान्‌ विष्णु के दृतीय क्रम से बह च्युत दो जाता है। “भूरिश्ंगाः अयास» गायें जिस लोक में विचरण करती हैँ उल गोलोक से चह अपने को भूलोक में पाता है। स्वगे से यही च्युति द्द्‌ | दया हम सच प्राणी उस अमराबती के शाप- मत्त बन्ष नहीं है जिसे स्वामी के अमिशाप के कारण ललित अलका श है




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