शिवराज - विजय भाग - 3 | Shivraj - Vijay Bhag - 3
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
433
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)॥ श्नी॥
निर्माणहेतु:
“गद्य कवीना निकेप चदन्ति”
इलोक एकस्याप्यशस्य चमत्कार-विशेषाधायकत्वे सर्वोषपि
इलोक प्रशस्पते, न च गये तथा सुलभ सौष्ठवम् । गद्ये तु सर्वाज्जीण-
सौत्दर्यमुपलश्येत्त चेतू, तदेव तत प्रशसा-भाजन भवेद्
भव्याताम् । पद्ये छन्द पारवश्यात् स्वच्छन्द-पद-प्रयोगो ने भव-
तीत्यनिच्छताएपि कविता-प्रसद्ध-प्राप्त: स्वाभाविक स्वल्पर्मपि
वचनीय ववचिद् विस्तायते, ववचिद् वह्वपि नियताक्षरे सक्षिप्य क्षोद्िप्ठ
विधीयते, क्वचिच्च हित्र-स्वाभाविक-पद-पयोग-समापनीयात्यपि
पारस्परिकालाप-ससक्त-प्राप्त-वाक्यानि जटिलीक्रियन्ते । गये
तु यदि किमपि तादुशमस्वाभाविक स्थातू, ततू कवेरेव निर्वक्ति
महंदवद्यमु--इत्यादिकारण पद्चापेक्षया गद्यमेव महामान्य भवत्ति,
भवति च दुष्करमपि गद्यकाव्यमेव ! अत एवं शुद्ध-पद्यात्मकेषु
बहुपु महाकाव्येष्वपि खण्डकाव्येप्दपि च् प्राप्येष्यपि गध्पदात्य--
केपु चम्पू-ताटकादिपु चानेकेपूपलभ्यमानेष्वपि, शुद्ध-गध-काव्यानि
तथा नासाइन्ते । अस्माक महासात्या धन्या सुबस्धु-बाण-
दण्डितों महाकवयों ये वासवदत्ता-कादम्बरी-दशकुमा रचरिताति
सुधामधुराणि सदा संदनुभव्यानि गद्यकाव्यानि विरचय्य भारत-
वर्ष सवहु-प्रमोद-वर्ष व्यधिषत, येपा चोक्ति-पर्य्यालोचन--प्राप्त--
पयाप्तब्युलत्तयोअसब्भूघारछात्रा अद्यापि वतेन्ते, वरतिष्यन्ते च
चिराय | पूर्वे्नद्वार-हरिव्चच्द्र-प्भृतिभिरेतर्महाकविशिश्न प्रचारि-
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