समुद्र में खोया हुआ आदमी | Samudra Men Khoya Huaa Aadami

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Samudra Men Khoya Huaa Aadami by कमलेश्वर - Kamaleshvar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आत्मवोध सुबह तारा बहुत जल्दी खाट से उठ गई और कमरे में चटाई विद्धाकर सोती रही थी। वह सुबह बहुत सूनी थी । कोई किसी से जरूरत के अलावा वात नहीं कर रहा था। समीरा को जब यह खामोशी खलने लगी तब वह अपने उसी कोने में आकर बँठ गई थी जहाँ वीरन के जाने के वाद वह आकर बैठने लगी थी, और आज भी उसी तरह सुबह के सूरत की वजह से सामने वाली दीवार पर परदछाइयाँ तैर रही थी । पहले कमरे वाला आदमी श्ोेव कर रहा या'*'उमका रेशर आकार में बहुत वड़ा दिखाई दे रहा था और नाक दोवार की सलवटों पर ठेढ़ी होकर बहुत लम्बी हो गई थी । प्रयामलाल बगैर किसी काम के सुबह से ही धर से निकल गए थे। आखिर रम्मी ने समीरा से तारा को उठवाया था और तारा थकी-थकी-मी मुंह घोने चती गई थी । लौटकर आई ती रम्मी ने चाय का प्याला और एक पराठा उसके सामने चुपचाप रख दिया। ताद ने नाश्ता किया और कपड़े बदलकर जाने लगी तो इतना ही बोली थी--“अच्छा अम्मा, मैं जा रही हूं !” “मुन* '” रम्मी ने आवाज़ दी । सारा सामने आकर खड़ी हुई तो उसने बहुत गहरी नजरों से उत्ते देखा । पर तारा की आंखों में सिर्फ थकान थी, भय यथा आशंका नहीं। “तेरी तबियत ठीक नहीं लग रही है !” रम्मी और कुछ नही पूछ पाई थी 1 “क्यों, ठीक है 17 “लगती तो नही, ठीक न हो तो मत जा !” नही, चली जाऊंगी 7! जात्मबोध | 27




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