घृणामयी | Ghrinamayi

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Ghrinamayi  by इलाचन्द्र जोशी - Elachandra Joshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र घणामयी | मैं उस अगरेजी छेखको पढने छगी। इतनेग्रे नौकरने आकर कहा--- ८४ दो आदमी मिलना चाहते हैं। ” दो आदमियोंके लिये वैठफक़े कमरेमें जाना फिजूछ समझकर काकाने उन्हें उसी कमरेमें लिवा छानेका हुक्‍्म दे दिया। चकित होकर मैने देखा कि मेरे मनोबाछित वहीं दो मित्र हैं। मैंने विस्मय-भरी इश्टीसे दोर्नोकी ओर ताका | उन दोनोंने भी मदु-मद मुसकानसे मेरी ओर ताककर भायद यह प्रकट किया कि मेरे प्रति, थे छोग उदासीन नहीं है | काकाने रूखी हँसी हँसकर दोनोंका अमिवादन) किया । पहले प्रोफेसर किशोरीमोहन बोले---/* माफ कीजिए, हमारे आनेसे आपके काममें पिन्न पड़ गया। ? काकाने पूर्वतत्‌ रुखाईके साथ हँसकर कहा--“ नहीं, कोई ऐसा पिन्न नहीं हुआ | ” अपनी श्षैंप प्रोफेसर साहबने शायद पहले ही मिठा ढेनी चाही | इसलिये काकांके त्रिना कुछ पूछे ही बोढे---/ हम छोगोंका कोई ऐसा खास काम तो था नहीं | यों ही आपके दर्शनार्थ चढे आए |” न माद्म क्यों, मैंने उसी दम यह कल्पना कर छी कि काका मन- ही-मन व्यंगंके तौरपर कहेंगे---/“ वड़ी रूपा की |” कह नहीं सकती कि बास्तवर्मे उन्होंने मनमें क्या सोचा | पर वह यिना कुछ उत्तर दिए उसी स्खाईके साथ हँसते रहे ) मुझे उनकी रखाई बहुत खटक रही धी। छुछ देर तक सब चुप रहे और कमरेमें सन्नाटा छा गया। यह सक्नाठा बड़ा अशोभमन जान पड़ा। में अच्छी तरहसे जानती थी कि काका यदि चाहते तो बिना किसी चेथ या कष्टके ड्म ध्यनिच्छित और भला




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