श्री समाधि - शतक | Shri Samadhi Shatak Tika

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है छठ विध्रेम सब ४६ के आलुमान होने वाले परम अनुभरी और तस्वानी, बोतरामी८योगीएवर श्री कुंद छंद महाराज ने झपने श्रीम्रवचनसारअंथ में नीचे लिखी गाथा से यही वात...कद्दी दै । गाधा-ठाण शिसेज बिहारा घम्सुवदेसो य णियदयोतेसिं। . श्रहंताणं काले मायाचारोव्य इच्छीयी ॥ ४४ ॥ सं० टीका--स्थानमृश्वेस्थितिर्निपय्या चासने विहारों धर्मोप- देशख एते व्यापारा नियतयः रवभावा * अनीहिता; तेपां 'अहेतां झ्ददेदवस्थापां कइव मायाचार इव स्त्रीगामिति । तथाहि। यथा स्त्रीगां वेदोदयसदभावात्‌ प्रयत्नाभावे$पि. मायाचार! प्रचर्तते तथा 'मगवतां शुद्धात्मतत्त्वप्रतिपच्तभूतसोद्दोदयकार्येदापव प्रयत्ना भावेषि, शी विहारादय: प्रवतेन्ते मेघानां स्थानगमनगजैनजल वर्षणादिवदा । भावाये रेबलियों के खड़ा होना, बैठना, विहार, ध्मोपदेश सब्र स्वभाव से बिना इच्छा के दोते हैं क्योंकि इन के शुद्धास्मतत्त से विपरीत मोइनी फर्म के उदय का का शो दन्ठा उसका श्भाव है । जंसे खियों के स्वभाव से दी मायाचार रदता है। थयवा मेयों का घूमना,” गजैना, सपना, जैसे होता है। शी. तियमसार जी में भी स्वापी छंद इंदाचार्ण ने ऐसा कहा दै । थ रण णिसेल विहारा ईहा पुव्व॑ शा होइ केवलिणो । तह्मा णहोइ चंधो साकटे मोहनीयम्य ॥ १७४ ॥ सावा्---खड़े दाना, बैठना, विदार केवली भगवान के इच्छा पूर्वक नहीं देता, पोइसहिन भीव के इस्दियों के प्रयोजन कक. बंप होता दै । थ दि दी था | सदित दोने से




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