अद्वैतामृतम | Adveta Martam

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Adveta Martam by रामचन्द्र - Ramchandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५; प्रथम: कवंल: । र्१्‌ 5 या यह 0 मम लत व ? अधथौपनिषद कबश्नि देहांदन्योस्ति, सोपि च। -'सर्वेपां : भिय .एपात्मा तदर्थश्व प्रियं जगतू ॥'' . तत्कि वित्तसुतादीनां प्रियाणामात्मनः परम्‌ | त्यागोडयपुच्यते कस्मा देहश्रायं निषीड्यते ॥ यदि उपनिषदों में प्रतिपादित आत्मा, देह से भिन्न कोई अन्य वस्तु हैं ओर वह देह से भिन्न आत्मा भी सब को प्यारा द्द्‌ तथा उलाक [छय यह जगत्‌ भा प्यारा ६, ता फिर अत्यन्त प्रिय धन पुत्र आदिरूप आत्मा के त्यागने का विधान अति क्यों करती है और क्‍यों इस शरीर फो पीड़ा दी जाती है ? ' अर्थात देह से भिन्न यदि और कोई आत्मा मानोगे तो बंहू पुत्र दारा आदि रूप ही होगा और उसी पुत्रादिरूप आत्मा के छिये शरीरोन्द्रियादि जगत्‌ भी प्यारा होगा, फ़िर उनके स्याग का विधास क्यों करते दो ९ य आपनिपद कश्ि हेहादन्यः प्रियः परः। आत्पास्ति त॑ तंपेयन्तु विपयैरिन्द्रियार्पिते! ॥ उपानिपर्दा में उपदंश किया गया देह से भिन्न अत्यन्त प्रिय जो कोई भी पुत्र दारा आदिरूप आत्मा है, उसे इन्द्रियाँ से अत्ुभव किये गये दिपयों दास ठप्त करो ! हन्तात्मा क्षिश्यते कि वा स्नानमच्छोचसुण्डनेःः। ' अधः श्पारण्यवास बह्म॑चस्येशमादिभिः -॥ दृह्य * स्नान, मिट्टी से शांच, सिर क्षादि का सुण्डन, , भूमि-पर शयन, वन में वास, अद्वाचय्य और शम दम आदि: कठोर साधनों से जात्मा को क्‍यों छेंश देते हो ह ० ,« ४:




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