कहकोसु | कहकोसु

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कहकोसु  by डॉ हीरालाल जैन - Dr. Hiralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ ) सम्पादन में भी प्रायः इसी नियम का पालन किया गया है। प्राकृत के अन्य काव्यों, जैसे गाहा- सत्तसई सेतुबंध गा गडउवहो, लोलावई, कंसवहो आदि में वररुचि के प्राकृत-प्रकाश' के नियसा- नुसार सभी स्थितियों से 'न' के स्थान पर 'ण' का प्रयोग किया गया है । अपश्रंश भाषा के प्रन्यो का सम्पादन श्रपेक्षा कृत बहुत आधुनिक है, श्रौर प्रायः इस भाषा के जितने ग्रन्थ श्रभी तक सुसम्पादित होकर प्रकाशित हुए है उनसे एकाधिक हस्तलिखित प्रतियों का उपयोग किया गया है। उन प्रतियों मे ना औ्रौर ण' ध्वनियों के प्रयोग से जो श्रतियमितता वृष्टिगोचर हुई हे, उसका उल्लेख प्रायः सभी सस्पादकों ने किया है। सर्वे प्रथम डा० हरमन याकोबी ने भविसयत्त-फकहा तथा सणकुमार-चरिउ का सस्पादन किया था। उन्होने श्रपने लिए यह नियम्त बनाया कि जब '्ञ' शाव्द के भध्य से झ्रावे, तब यदि पुल संस्कृत छाब्द से 'ण' नही है तो उसे दन्त्प ही रहने दिया जाबे। किस्तु यदि संस्कृत में ण' हो तो उसके स्थान पर मसुद्धेन्य अ्रनुनासिक ही रखा जावे, जैसे कन्या-कन्ना तथा कर्णा-कण्ण । उनके द्वारा सम्पादित सणकुमार चरिउ' (मुन्चेन, जमंती १९२१) की दब्द-सुची मे लगभग १६८ इझाब्द नादि हैं और 'णादि' केवल एक 'णु' (ननु) ही तीन-चार बार आया है। डा० श्राल्सडॉर्फ द्वारा सम्पादित कुमारपाल प्रतिबोध (हम्बुर्ग सन्‌ १९२८ ई०) की शब्दानुक्रमणिका से लगभग डेढ सौ शब्द नादि' है तथा 'णादि' केवल दो शब्द मेरी दृष्टि मे श्राये, णइ श्र प्हाण । यह स्थिति उनके द्वारा सम्पादित हरिवस पुराणु (हम्बुर्ग सन्‌ १९३६) से उलट गयी, क्योकि इसकी शब्द-सुच्री मे केवल न व नृव शब्द ही नादि हैं; शेष सभी शब्द 'णादि' पाये जाते हैं । डा० गुणे ने भविसयत्तकहा का प्रकाशन १९२३ ई० में कराया। उसकी प्रस्तावना में उन्होने शब्द के श्रारम्भ से तथा सध्य से द्वित्व रूप से 'न ध्वनि को सुरक्षित रखने की प्रणाली को श्रद्धं-मागधी प्रवृत्ति कहा है, श्रपश्नश भाषा की कोई विशेषता नहीं । उनका मत है कि श्रपश्नंश ग्रन्थों से न और 'ण' का प्रयोग श्रतियमित विकल्प रूप से श्राता है, जेसे 'न' भ्रादि नयर, नराहें, नेउर, श्रन्न, मन्नइ इत्यादि, तथा णिहणु, णउ, श्राणर्ताहू, णिज्जावय, समण्णुण्ण, णिव्भिणईं इत्यादि । श्रतिएव इनसे सिसी नियम की कल्पना करना व्यर्थ हे । डा० प० ल० चेद्य ने पुष्पदन्त कृत 'जसहर-चरिउ (कारजा जेन ग्रन्थमाला १९३१ ई०) तथा महापुराण (सा० दि० जैन प्रन्थ, १९३७ ई० श्रादि) से निरपवाद रूप से सर्वत्र केवल 'ण का ही प्रयोग किया है। और ईसी प्रवृत्ति का पालन डा० श्रा० ने० उपाध्ये ने योगीन्ददेव कृत परमास्मप्रकाद एवं योगसार (रा० जेन शास्त्र० बम्बई १९३७ ई०) मे तथा डा० हु० व० भयाणी ने स्वयम्भू कृत पउमचरिउ (भाग १-३, सिंधी जैन ग्रल्थ० भा० वि० भ० बस्बई सन्‌ १९५३ ई० श्रादि) के सम्पादन से किया है। प्रस्तुत सम्पादक ने भी णायकुमारचरिउ सावय-धस्मदोहा, पाहुडदोहा, फरकड्चरिउ, सुदसणचरिउ, सयणपराजयचरिउ एवं सुगंधदशमी-क्था इन ग्रन्थों फे सस्पादन से इसी नियस को निरपवाद रूप से स्वीकार किया है। किन्तु यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि डा० वेद्य ने अपने हेसचन्द्र प्राकृत व्याकरण के संस्करणों (पुना १९२८ ई० तथा १९३६ ई०) की शब्द-सूची से 'नादि! लगभग २०० झाब्दों को दिया है जिनसे ५० से श्रधिक अपक्रद्य दाव्द हैं, एव 'णादि' शब्दों की सख्या लगभग १०० हैं जिनमे श्रयश्नंदा के केवल णं, णवि,




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