जैनेन्द्र व्याकरणम् तथा जैनेन्द्र महावृत्ति | Jainendra Vyakaranam Tatha Jainendra Mahavritti
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
30 MB
कुल पष्ठ :
566
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
अभयनन्दि - Abhayanandi
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)देवनन्दिका जेनेन्द्र व्याकरण २४
अध्यायके पहले पाइका १६ वो सूत्र है। यह प्रति बहुत प्राचीन और शुद्ध है परत श्ागसे कुलसी हुई है |
दूसरी प्रतिमे केवल तीन अध्याय है। इसकी श्लोक संख्या १२००० है। इससे जान पड़ता है कि सम्पूर्ण
गन्ध १६००० के लगभग होगा ।
अभयनन्दिकी बृत्तिसे यह बड़ा है और उससे पीछे बना है। इसमे महावृत्तिके शब्द ज्योके त्थों ले लिये
गये हैं और तीसरे अध्यायके अन्तके एक श्लोकेमे अभयनन्दिको नमस्कार भी किया है ।
इसके कतो प्रभाचन्द्र हैं और वे प्रमेषकमलमातंर्ड और न्यायकुमुद्चन्द्रके ही कर्ता मालूम होते
हैं। क्योकि इसके प्रारंभमे ही यह कह गया है कि झनेकान्तकी चर्चा उक्त दोनों ग्रस्थोमे की गई है, इसलिए
यहाँ नहीं करते । अवश्य ही इसमे उन्होंने अपने ही अन्थोको देखनेके लिए कहा है, “अथ को<्यमनेकान्तो
गामेत्याह--अस्तित्वनास्तित्वनित्यत्वानित्यव्वसासान्यासासान्याधिकरण्यविशेषणविशेष्या दिको नेकान्तः स्वभाव
अस्यार्थस्यासावनेकास्तः, अनेकान्तात्मक इत्यथे, । तन्न च प्रतिष्ठितमिथ्याविकत्पकल्पिताशेप विग्नतिपत्ति, प्रत्यक्षा-
दिप्रमाणमेव अत्यस्तसमयतीति (१) तद्धिततया तदात्मकर्व॑ चार्थस्य अ्रध्यक्षतो5नुसानदिश्व यथा सिद्धयति तथा
प्रप्नतः प्रसेयक्मलमातंण्डे न््यायकुमुद्चन्द्रे च प्रतिरूपितमिह द्रष्ठायस् ।!
इसके मगलचरणमे पूज्यपाद और ग्रकलंकको नमस्कार किया गया है |
३-पंचदस्तु-भाडारकर रिसर्च इन्स्टिट्यू टमे इसकी दो प्रतियाँ मौजूद है, जिनमें एके ३००-
४०० वर्ष पहलेकी लिखी हुईं है और बहुत शुद्ध है और दूसरी * सवत् १६२० की । पहलीपर लेखकका नाम
श्रौर प्रति लिखनेका समय आदि नहीं है। इसके अ्न्तमे केवल इतना लिखा हुआ है--“कृतिरियं देवनया-
चायस्य परवादिसधनस्य ॥छा॥ शुभ भवतु लेखकपाठकयोः ॥ श्रीसंघस्य 1!
दूसरे प्रति रुनकरएडभ्ावकाचारवचनिका आदि अ्रनेक भाषाअन्धोके रचयिता सुप्रसिद्ध पण्डित सदा-
छुलजीके हाथकी सवत् १९१० की लिखी हुई है ।
यर टीका प्रकिया बद्ध है और बड़े अच्छे दगसे लिखी गयी है। इसकी श्लोकसख्या ३३०० के लग-
भग है। प्रारभक़े विद्यार्थियोंके लिए बढ़ी उपयोगी है।
इस अन्यके श्रादि-अन्तमे कहीं भी कर्ताका नाम नहीं है | केवल
जिउसे मादम होता है कि इसके रचयिता अ्रतकीर्वि हैं।।
सनक न++-+++>++++9+८................, च्ज्ज
१. नमः ध्रीदर्धभानाय महते देवनन्दिने | प्रभाचन्द्राय
२. नं० १०७६ सन् १४८७-६१ की रिपोट ।
३२. न० ५६० सन् $८७७-७ ६
पुराने दि० जैनमन्दिरके भंटारसे भी है। ४
४ धब्दे नभभ्नम्ट्रविधिस्थिरादे
सद्रक्रियावन्ध
० कप जप है
एक जगह पांचवे पत्रमे नाम आया है,
गुरवे तस्मे चाभयनन्दिने ॥
हि चल
दी रिपोर्ट । इस अन्धकी एक प्रति परतापणशढ ( मालवा ) के
खो जेनमित्र त्ता० २६ अगस्त १६१७1
अराके शुद्धे सहस्यम (१) युक् चतुरप्याम् ।
दे न्धनिवन्धनेय सद्वस्तुवृत्तीरदनात्समाप्ता ( १ )1॥
प्ामतराणमधिपेशराज्ञि प्रीरामसिहे विलसत्यलेखि |
भोमटुधेनेट सदासुखेन भ्रोयुक्फतेलालनिजात्मउद्धबों ॥
शब्दीयशाख पटित न॒मैस्ते: स्वदेहसपालनभारवत्निः
शक दर क्नि
कवि दी फ्थनीयमेतद् इशथ्यंगसंघावपलापबद्धि: ॥
यर प्रति भी धायः शुद्ध है ।
के र
५७. याम चर-रणेकर-चर्
णादीना संघीना थ॑ हना संभवयत्वात् सं पर
एस्सन्धिरिति । ईता संभवत्वात् संशयान. शिष्य संघ्च्छुति स्म।
सशास्दस्पहतिएजदिसगजन्मा सघिस्तु पंचक इतीन्धमिहाहुरन्ये ।
रूसमहतिट्जदिम्प््तोडस्मिन्सथि न्रिचा
फ्थयति ध्रतकी तिसर्य
त्ति श्रुत॒क्तिंराय: ॥
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