हमारी संस्कृति - इतिहास के कीर्तिस्तम्भ | Hamari Sanskriti Itihas Ke Kirti Stambha

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Hamari Sanskriti Itihas Ke Kirti Stambha by ब्रह्मवर्चस - Brahmvarchas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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क्रुछ देर बाद चैत्तन्य होकर कहने लगे--- “दस दिन पीछे आ जायगा, वहाँ न जाना पड़ेगा |” दस दिन के भीतर ही एक दिन मधुराबाबू ने जल्दी-जंल्दी आकर कहा-- “प्रभो, आपके वर्द्धमान के पंडित जी कलकत्ता आ गये हैं। मैंने उनको राजा शाधाकान्त देव के साथ बातें करते देखा था । मालूम हुआ कि पेडित जी बीमार होकर विमलाचरण विश्वास के बगीचे में ठहरे हैं ॥ जब परमहंस देव उनको देखने को वहाँ गये तो वे तुरन्त उठ बैठे और बोले--- “अह्ा ! कैसा आश्चर्यजनक रूप मुझे दिखाई पड़ रहा है। बाहर से तो मनुष्य जैसा आकार है, परन्तु अन्तर में काली रूप जान पड़ता है ।” पण्डित जी ने अपने विद्ार्थियों से कहा- “तुमने देखा, एक कमरा भर जाय 53125 को पढ़कर मैने जो दर्जा प्राप्त किया है उससे हजारों गुना उत्तम दर्जा परमहंस देव ने बिना पढ़े ही पा लिया है-17 , पण्डित पद्मलोचन दृढ़ वैष्णय और आचार-विचार पालने चाला व्यक्ति था | इधर रानी रासमणि के शूद्र जातीय होने से अनेक पंडित भामधारी हीन दृष्टि से देखते थे | यह सोघकर परमहंस देव मे कहा-- “क्या तुम रासमणि के बगीचे में आ सकोगे ? पद्मलोचन ने तुरन्त उत्तर दिया--- “आप यदि भड्छी, चमार के घर में हों तो वहाँ पर मैं क्या मैरे पूर्वन भी खुशी से आयेंगे |“रासमणि और मधथुराबाबू तो महा भाग्यशाली हैं जहाँ आप साक्षात्‌ काली माता के रूप में विद्मजमान हैं ।'मैं इस वीमारी से मुक्त हो जाने पर मथुरा बाबू के घर पर जाऊँगा और वहाँ पर सब पंडितों को बुलाकर शाम्रार्थ करूँगा और देखूँगा कि उनको या आपको हीन सिद्ध करने का साहस कौन करता है ?” * कलकत्ता में कोलूयेला में एक “चैतन्य-सभा” थी | उसमें चैतन्यदेव की गद्दी बिछाकर भक्त लोग चारों तरफ कीर्तन करते थे $ एक दिल परमहंस देव सहाँ पर गये और ध्यानावस्था में गद्दी पर बैठ गये । यह देखकर कोई-कोई तो मुग्धभाव से उनके दर्शन करने लगे और कोई प्रपंची; कपदी, चैतन्य का झूँठा अनुकरण करने वाला कहने लगे | उस समय कलकत्ते के समीप “कालना' में भगवानदास बाबाजी सच्चे वैष्णव माने जाते थे । आयु भी उनकी बहुत अधिक थी, जिसका ठीक पता किसी को न था । उनसे जब किसी ने उपर्युक्त घटना कही तो वे बड़े नाराज हुए और बहुत घुरा-भला कहा 1 इसके कुछ दिन वाद ही परमहंस देव नौका द्वारा भ्रमण करते अकस्मात्‌ कालना जा पहुँचे और बाबाजी के आश्रम में भी गये | बाबाजी की दृष्टि अधिक आयु के कारण बहुत क्षीण हो गई थी और वे दूर से किसी को पहचान नहीं सकते थे । परमहंसदेव के पहुँचते ही वे कहने लगे--- “मेरे जैसे दीन पर दया करके किस हमारी संस्कृति-इतिहास के कोर्तित्तम्भ १.६ महापुरुष ने इस कुटी को अपनी चरण-रज से पवित्र किया?” तब तक परमहंस उनके सामने जा खड़े हुए । बाबाजी ने उनके चरण छूकर बहुत स्तुति की | बाद में जब उनको यह मालूम हुआ कि ये ही महापुरुष चैतन्यदेव की गद्दी पर बैठे थे तो वे अपनी भूल पर बड़ा पश्चाताप करंने लगे | महान होकर भी साधारण परमहंस देव बहुत बड़े व्यक्तियों द्वारा पूज्य होने पर भी सर्वत्नाधारण में मिलकर रहते थे । इस कारण उन्होंने आजीवन साधुओं के कपड़े नहीं,पहिने | वे सब लोगों के घर आते-जाते रहते थे और वहाँ बिना किसी विशेष आडम्बर के रहते-सहते थे । इसलिये थोड़े से साधु-सन्‍्त और अध्याल विषयों के ज्ञाता ही उनके वास्तविक स्वरूप को पहिचानते थे अन्य लोग तो एक पागल ही समझते थे । परमहंस देव को धनवान मनुष्यों से एक प्रकार की विरक्ति थी और उनको देखते ही तिरस्कार का भाव उत्पन्न हो जाता था. । यह ठीक है कि वे मथुराबाबू जैसे एक धनवान के आश्रम में रहते थे और दी-चार अन्य सम्पत्तिशाली व्यक्ति भी उनके भक्त और सहायक थे, पर ये सभी ऐसे थे जिनको आध्यात्िक विषयों में बहुत अधिक रुचि थी और अपने धार्मिक कर्तव्यों की तरफ-पूरा ध्यान रखते थे । पर धन का - गर्व रखने वाले सेठ-साहूकारों अथवा राजा-महाराजाओं को वे अच्छा नहीं समझते थे और उनके मुँह पर ही खरी बात कह देते थे । ग एक दिन बाबू कृंष्णदास पाल तथा अनेक “महाराजा! तथा “राजा बहादुरों' की “सुसभ्य' मंडली में परमहंस देव को बुलाया गया था | उस समय कृष्णदास पाल ही समस्त सभासदों में मुख्य बोलने वाले थे । उन्होंने परमहंस देव से फहा- ““वैराग्य के उपदेश ने ही इस देश का सर्वनाश किया है ( संसार की समस्त वस्तुओं को झसार बतलारा ही प्राचीनकाल का “धर्म” था | इस तरह की धारणा से ही भारतवर्ष परतन्त्र हो गया 1,इसलिये आपको ऐसा उपदेश करना चाहिये जिससे देश का वास्तव में हित-साधन हो |” परमहंस देव ने कुछ हँसकर उत्तर दिया--- “इस तरह की विपरीत वुद्धि वाले मनुष्य हमारे देश में अधिक नहीं है 1 तुम प्राणियों का क्या हित-साधन करोगे ? तुम जिसे हित कहते हो उसे मै भली प्रकार जानता हूँ. | पॉच आदमियों को भोजन करा देना, रोगियों का इलाज करा देना अथवा एकाध सड़क, तालाब, कुआ बनवा देना 1 ऐसे कामों से थोड़ा हित-साधन होता है, यह ठीक है पर मनुष्य की शक्ति ही कितनी है ? लोगो का अन्न-कष्ट तुम कैसे दूर कर सकते हो ? अन्न-कष्ट का कारण यह है कि ईश्वर ने पर्याप्त जल नहीं बरसाया और अन्न भी उत्पन्न नहीं किया | तुम




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