सामान्य भाषाविज्ञान | Samanya Bhasha Vigyan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
197
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भाषा का उद्गम . १३
विशेष रूप से ध्वनिया निकलती हैं। पक्ती आनंदोल्लास, भय, भूख श्रादि के ही
समय शोर मचाते हैं अन्यथा चुप रहते हैं। गाय का बच्चा भी कुदककी मारते
समय, भूख से या मा को देखकर उल्लास से अम्मा-अम्मां करता है। गायें, भैंसे
बहुधा मैथुन की प्रबल अदम्य आकांक्षा दोने पर रँभाती हैं| श्रीवेशाखनंदन जी भी
पीछे नज़र घुमाकर और यह शान प्राप्त कर कि इतनी भारी जगह की घास हमने साफ़
कर दी आनंदातिरेक से रकने लगते हैं। इसी प्रकार, तृतीय मत को पेश करनेवाले
विद्वानों के अ्रनुसार, आरंभ मे मनुष्य में भी इस प्रकार अपने भाव प्रकट करने की
शक्तिजथी ओर विस्मयादिबोधक चिह्न इसी शक्ति के परिणाम हैं | इन विद्वानों का
कहना है कि प्रारभ में मनुष्य इन्हीं का उच्चारण कर सकता था ओर धीरे-धीरे इस
प्रकार की उच्चारित ध्वनियों को उन आवेशों ओर भावों से श्रलग भी उच्चारण करने की
उसे शक्ति प्राप्त हो गई | जैसे कि हम देखते हैं कि प्रारंभ में बच्चा जो सोचता है उसे
अकेला बैठा हुआ भी शब्दों में प्रकट करता जाता है पर धीरे धीरे वह विचार और
ध्वनि को अलग करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है; ठीक उसी प्रकार आदिम मनुष्य
समुदाय की शक्ति का विकास हुआ दोगा। उदाहरण के लिए छिः छिः, पत्, हुश्,
हला आदि अथवा श्रेंगरेज़ी के फ़ाइ (16), बाश (90880) आदि शब्द पेश किये
जाते हैं| मज़दूर जब बोझ उठाता हुआ थका रहता है तब उसके मंह से अनायास
हे, हो आदि शब्द निकल पड़ते हैं ओर इसी से उठाने के श्र की अंगरेज़ी धातु
हीव् (1९9४९) की उत्पत्ति बताई जाती है। इसी प्रकार तिर॒स्कार सूचक फ़ाइ (19)
शब्द से तिरस्कारपूर्ण काम करनेवाले शब्द (शैतान) फ़ियेड (17070) का संबंध
जोड़ा जाता है।
दूसरे मत को काठने के लिए यह मत उपकारक साबित हुआ। पर स्वयं यह
मत भी पूरे तौर से संतोषजनक नद्ीं है। पहली बात तो यह है कि विस्मयादिबोधक
अव्यय भाषा के सुख्य अंग नहीं ओर किसी भी भाषा में उनकी संख्या बहुत परिमित
है। वे वाक्य के अंदर तो आते ही नहीं, उनका अस्तित्व द्दी अलग है| दूसरे यह -बात
कि यह अव्यय सदा और सवंत्र मनोराग आवेश आदि के द्योतक हैं यह भी ठीक
नहीं जँंचती क्योकि कहीं और कभी कोई अ्रव्यय प्रयोग में आते हैं ओर दूसरे देश.
काल में अ्रन्य ।
तब भी दूसरे श्रौर तीसरे मत के अ्रनुतार भाषा के थोड़े से (परन्तु बहुत थोड़े
से) शब्दों की उत्पत्ति समझ में आ जाती है | शेष के विषय में वे केवल अ्रसंतोष:
जनक वाद की सत्ता पर ही स्थित रहते हैं ।
फिर इस जटिल समस्या का क्या हल हे ! अश्रल्पज्ञानी मनुष्य के शान की
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